ज़िदगी तूने क्या किया
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( जीवन की पाठशाला से )
जीने की बात न कर
लोग यहाँ दग़ा देते हैं।
जब सपने टूटते हैं
तब वो हँसा करते हैं।
कोई शिकवा नहीं,मालिक !
क्या दिया क्या नहीं तूने।
कली फूल बन के
अब यूँ ही झड़ने को है।
तेरी बगिया में हम
ऐसे क्यों तड़पा करते हैं ?
ऐ माली ! जरा देख
अब हम चलने को हैं ।
ज़िदगी तुझको तलाशा
हमने उन बाज़ारों में ।
जहाँ बनके फ़रिश्ते
वो क़त्ल किया करते हैं ।
इस दुनियाँ को नज़रों से
मेरी , हटा लो तुम भी।
नहीं जीने की तमन्ना
हाँ, अब हम चलते हैं।
जिन्हें अपना समझा
वे दर्द नया देते गये ।
ज़िंदगी तुझको संवारा
था, कभी अपने कर्मों से ।
पहचान अपनी भी थी
और लोग जला करते थें।
वह क़लम अपनी थी
वो ईमान अपना ही तो था ।
चंद बातों ने किये फिर
क्यों ये सितम हम पर ?
दाग दामन पर लगा
और धुल न सके उसको।
माँ, तेरे स्नेह में लुटा
क्या-क्या न गंवाया हमने ।
बना गुनाहों का देवता
ज़िन्दगी, तूने क्या किया ?
पर,ख़बरदार !सुन ले तू
यूँ मिट सकते नहीं हम भी।
जो तपा है कुंदन - सा
चमक जाती नहीं उसकी ।
- व्याकुल पथिक