जब किसी से कोई गिला रखना
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यहाँ मैं गृहस्थ, विरक्त और संत मानव जीवन की इन तीनों ही स्थितियों को स्वयं की अपनी अनुभूतियों के आधार पर परिभाषित करने की एक मासूम सी कोशिश में जुटा हूँ।
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मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यूँ नहीं जाता
बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता
सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता...
दर्द कुछ अपना तो कुछ औरों का दिल में लिये इस चिंतन में कल रात खोया सा रहा कि संत की परिभाषा क्या है..? मैंने किसी भी धर्मग्रंथ को बढ़िया से कभी पढ़ा तो नहीं है । हाँ , बड़े- बड़े कथा वाचकों का प्रवचन खूब सुना था , जब निठल्लों की तरह बनारस के कम्पनी गार्डेन संग मित्रता थी मेरी। विकल मन की शांति की चाहत में पैदल ही काशी के उन स्थलों पर पहुँच जाया करता था, जहाँ विख्यात कथा वाचकों का प्रवचन होता था। परंतु वहाँ भी वही चकाचौंध करने वाला वैभव का प्रदर्शन दिखा। सम्पन्न लोगों की पूछ थी, खैर फिर भी मुरारी बापू के संगीतमय रामकथा से हृदय की अकुलाहट कुछ कम हुयी थी। कथा स्थल पर स्त्रियाँ नृत्य करती दिखीं थीं पहली बार वहाँ... इसी आनंद को वे अपने गृहस्थ जीवन में भी ला पायी या दिखावा था, ठीक से नहीं समझ पाया अब तक मैं ...
हाँ , अपने लिये इतना अवश्य कह सकता हूँ , जब से ब्लॉग पर आया ,आत्मचिंतन से दो प्रमुख लोभ धन और भोजन से मुक्त हो गया हूँ । किसी के अनिष्ट की चाहत बिल्कुल भी नहीं रह गयी है। वैसे, मेरी पत्रकारिता इससे प्रभावित हो रही हैं , चाह कर भी पहले की तरह खुल कर आलोचना किसी व्यक्ति विशेष अथवा राजनैतिक दल की नहीं कर पाता अपनी लेखनी से.. पर अब तो पथिक के पग बढ़ चुके हैं , नयी मंजिल की ओर...
यहाँ मैं गृहस्थ, विरक्त और संत मानव जीवन की इन तीनों ही स्थितियों को स्वयं की अपनी अनुभूतियों के आधार पर परिभाषित करने की एक मासूम सी कोशिश में जुटा हूँ।
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एक गृहस्थ जो दिन भर परिश्रम करता है, तो सायं घर पहुँचने पर पत्नी मुस्कुरा कर उसका स्वागत करती है। भोजन की थाली में सजे व्यंजनों की सुगंध से उसका मन प्रफुल्लित हो उठता है। रात्रि में कोमल मखमली शय्या पर देवी रति स्वरुपा अर्धांगिनी का जब सानिध्य प्राप्त होता है, तो वह सृष्टि की सम्पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। मन का भटकाव ठहर जाता है एवं यह मधुर मिलन उसे उर्जा प्रदान करता है साथ ही सृष्टि चक्र आगे बढ़ता है। शास्त्रों में त्रिदेव भी अपनी अर्धांगिनी संग ही विराजमान हैं। इस सुंदर घरौंदे की चाहत भला फिर किसी को क्यों न हो। अब इसे स्वच्छ रखें या गंदगी फैलाये, यह तो गृहस्वामी को तय करना है। वर्षों पहले की बात याद आ रही है। मैं अपने एक मित्र के घर गया था। वे , उनकी अर्धांगिनी एवं पुत्र तीनों ही एक ही थाली में भोजन कर रहे थें। मित्र महोदय स्वयं अपने हाथों से बारी- बारी से माँ- बेटे के मुहँ में निवाला डालते और स्वयं भी ग्रहण कर रहे थें। मुझे देख कर कुछ सकुचा से गये , तो मैंने एक ठहाका लगाया और कहा अरे जनाब ! इसमें क्या लज्जा ... चाट के ठेले पर फुलकी वाला इसी तरह - तरह तो बारी- बारी से गुपचुप खिलाता है न भाई..
इससे अधिक देरी तक भोजन को चबाने के लिये समय मिलेगा, तो स्वास्थ्य भी ठनाठन रहेगा और मोहब्बत भी मेरे दोस्त..?
एक नगमा पेश कर रहा हूँ , स्त्रियों के सिर्फ सौंदर्य के पीछे दौड़ लगाने वाले पुरुषों के लिये...
चाँद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था
हाँ तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था
ना रस्में हैं ना कसमें हैं ना शिकवे हैं ना वादे हैं
इक सूरत भोली भाली है दो नैना सीधे सादे हैं
ऐसा ही रूप खयालों में था जैसा मैंने सोचा था...
वैसे, बचपन में बाबा की थाली में भोजन के लिये हम भी दौड़ पड़ते थें।
...प्यारे को यह आम (गुठली वाला भाग) नहीं मिलेगा, जहाँ बोले नहीं कि लड़ाई शुरु।
कुछ ऐसे भी पुरुष है कि उनके घर में प्रवेश करते ही मरघट सा सन्नाटा पसर जाता है। यदि आप हिटलर बनेंगे तो निश्चित यह प्रेम खो देगें.. फिर तो आपके इशारे पर नाचने वाली एक कठपुतली सामने होगी। जो आपकी पुकार पर दौड़ दौड़ कर चाय- पानी आप तक पहुँचाती रहती है। तब भी अर्धांगिनी आपकों प्रेम करती है, परंतु सत्य तो यही है कि उसके हृदय के किसी कोने में अंधकार समाया रहता है..
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अनुभूतियों को साक्ष्य मान कर यदि वैराग्य की बात करूं , तो यह एक आहत हृदय मानव की मनोवृत्ति है । जब कभी हमारा मन किसी कारण विकल होता है , किसी अप्रत्याशित दुखद घटना से , अपनों को खोने से हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व छिन्न भिन्न हो जाता है , स्नेह/ प्रेम का वह बंधन जो जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि सी लगती है , कच्चे धागे सा टूट जाता है, यादों की ज़ंजीर यातना देने लगती है , निश्छल मन की भावनाओं को ठेस पहुँचता हैं, सब कुछ उपहास सा लगता है या फिर नश्वरता का बोध होता है। ऐसे में मोह का आवरण हटता सा प्रतीत होता है, फिर तो खूबसूरत संसार मरघट सा लगता है। माँ की मृत्यु पर कोलकाता के श्मशान घाट पर मेरे बालमन को पहली बार इस वेदना की अनुभूति हुई थी। तब से अब तक दर्द के हर पैमाने को पार कर चुका हूँ। मन कोई कठपुतली तो है नहीं कि जैसे चाहूँ उसे नचा सकूँ । व्याकुलता जब चरम हो, अपनों से मिलन की चाह जब पूरी न हो एवं इस उपहास भरे जीवन को त्यागने की इच्छा प्रबल हो, मन को धीरज देने के लिये वैरागी पुरुषों का निश्चित ही स्मरण करना चाहिए।
निर्वाण षटकम् जो आदि शंकराचार्य की विशिष्ट स्तोत्र-रचना है। इसमें सारांशतः सम्पूर्ण अद्वैत दर्शन अभिव्यक्त है।
मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम्
न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर् न तेजो न वायु:
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्..
मैं मन नहीं हूँ, न बुद्धि ही, न अहंकार हूँ, न अन्तःप्रेरित वृत्ति;मैं श्रवण, जिह्वा, नयन या नासिका सम पंच इन्द्रिय कुछ नहीं हूँ। पंच तत्वों सम नहीं हूँ (न हूँ आकाश, न पृथ्वी, न अग्नि-वायु हूँ)।वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।
हमारे गुरु जी ने दो दशक पहले स्वयं टेपरिकार्डर और निर्वाण- षटकम् का यह कैसेट तब दिया था, जब मैं असाध्य मलेरिया ज्वर से पीड़ित था एवं जीवन के प्रति तनिक भी आकर्षक शेष न था।
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और संत स्वभाव क्या है..? यह मानव जीवन की सबसे श्रेष्ठ मनोस्थिति है। तब मन, वाणी एवं कर्म तीनों एक समान व्यवहार करता है। स्वयं को कुछ मिले न मिले , परंतु अपना सब कुछ जनकल्याण के लिये दांव पर लगा देता है। किसी का अनिष्ट न हो, भले ही चतुर लोग पीड़ा दे जाएँ , फिर भी संत कभी गिला नहीं करता है। इस अर्थ युग में इस छल युद्ध में अनेकों बार मैंने अपनों से धोखा खाया है। परंतु इस अवसाद से मुक्त रहने के लिये मैं बस इतना स्मरण रखता है कि इस मीरजापुर में जब आया था, तो दो जोड़ा कपड़े ही लाया था। अतः जो यहाँ पाया है, उसे यहीं छोड़ जाना है।
.. बुद्ध और अंगुलीमाल का प्रसंग याद है मुझे। हर किसी के प्रति स्नेह , बदले में कुछ भी नहीं चाहता... काश ! मैं भी कुछ ऐसा कर जाऊँ। मानव जीवन सफल कर जाऊँ। हर किसे से गिले शिकवे अब यही दूर कर जाऊँ... निदा फ़ाज़ली की इस गजल से अपना जीवन रौशन कर जाऊँ...
जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आईना रखना
यूँ उजालों से वास्ता रखना
शम्मा के पास ही हवा रखना
घर की तामीर चाहे जैसी हो
इस में रोने की जगह रखना ...