कितना मुश्किल है पर भूल जाना...
(दीपावली और माँ की स्मृति)
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हमें तो उस दीपक की तरह टिमटिमाते रहना है ,जो बुझने से पहले घंटों अंधकार से संघर्ष करता है, वह भी औरों के लिये, क्यों कि स्वयं उसके लिये तो नियति ने " अंधकार " तय कर रखा है..
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बिछड़ गया हर साथी देकर पल दो पल का साथ
किसको फ़ुरसत है जो थामे दीवानों का हाथ
हमको अपना साया तक अक़सर बेज़ार मिला
जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला
हमने तो जब कलियाँ माँगी काँटों का हार मिला....
रोशनी के पर्व दीपावली की यह काली रात आज मुझे इस तन्हाई में और स्याह क्यों प्रतीत हो रही है... बाहर तो चहुँओर उजाला है,पटाखों की आवाज भी कम नहीं सुनाई पड़ रही है और सड़कों पर भी तो भारी चहलपहल है, फिर दिल में यह अंधकार क्यों.. ?
ऐसे प्रमुख पर्व-त्योहार पर जब भी ऐसी मनोस्थिति होती है मेरी, तो अपने पसंदीदा अभिनेता गुरुदत्त की
फिल्म " प्यासा" को और करीब से समझने की कोशिश करता हूँ । यूँ समझे कि मन को जरा तसल्ली देने का प्रयास करता हूँ कि
इसको ही जीना कहते हैं तो यूँ ही जी लेंगे
उफ़ न करेंगे लब सी लेंगे आँसू पी लेंगे
ग़म से अब घबराना कैसा, ग़म सौ बार मिला
हमने तो जब ...
वैसे दिन भर तो व्यस्त ही रहा। स्नेहीजनों के यहाँ गया भी और सदैव की तरह ही मिठाई आदि दीपावली के उपहार भी कम नहीं मिले मुझे , जिन्हें पता था कि मिठाई से मैं कुछ परहेज करने लगा हूँ, तो उन्होंने ड्राई फ्रूट भेज दिया। जिन्हें लगा मुझे लिफाफा पंसद नहीं ,उन्होंने कुछ दूसरा उपहार दिया । वहीं कुछ माननीय और स्नेही जन ऐसे भी थें, जिन्होंने साफ तौर पर कह दिया कि मुझे उनका लिफाफा स्वीकार करना ही होगा, क्यों कि यह कोई रिश्वत नहीं है। उनका कहना रहा कि आप समाज के लिये निःस्वार्थ भाव से लेखन करते हैं। अतः उनकी भी जिम्मेदारी है कि वे मेरी अर्थ व्यवस्था को बनाये रखें,ताकि मूलभूत आवश्यकताएँ मेरी पूरी होती रहे। इन लिफाफों में पाँच सौ से लेकर पाँच- पाँच हजार रुपये भी थें।
उस इंसान के लिये जिसने पत्रकारिता जगत में आकर अपनी तमाम निजी खुशियाँ खो दी, उसके लिये यह मान-सम्मान और स्नेह कम नहीं है। इस जीवन रुपी सागर के मंथन से निकले विष एवं अमृत दोनों को ही समभाव से हमें ग्रहण करना ही पड़ेगा ।
मध्यरात्रि तक होटल के इर्द-गिर्द पटाखे बज रहे थें। परंतु पटाखों को हाथ लगाये मुझे तीन दशक से ऊपर हो गये हैं। अब सोचता हूँ कि चलो अच्छा ही है , मुझे पटाखा नहीं बनना है , जो भभक कर, विस्फोट कर अपना अस्तित्व पल भर में समाप्त कर दे, साथ ही वातावरण को प्रदूषित भी करे ..। मुझे तो उस दीपक की तरह टिमटिमाते रहना है ,जो बुझने से पहले घंटों अंधकार से संघर्ष करता है, वह भी औरों के लिये, क्यों कि स्वयं उसके लिये तो नियति ने " अंधकार " तय कर रखा है..।
आपने भी सुना होगा न यह मुहावरा कि चिराग तले अंधेरा..।
सो, दीपावली की रात इसी चिंतन में गुजर गयी, यूँ ही मन को बार- बार बहलाते हुये।
हाँ, रैदानी भैया द्वारा भेजा गया कोलकाता के तिवारी ब्रदर्स की काजू की बर्फी के डिब्बे ने ननिहाल में गुजरे अपने बचपन की मधुर स्मृतियों को मानस पटल पर चलचित्र की तरह ही चलायमान कर दिया है। दरअसल, बड़ा बाजार स्थित छोटे नाना जी की मिठाई की दुकान गुप्ता ब्रदर्स का सोन पापड़ी ,तिवारी ब्रदर्स का समोसा( सिंघाड़ा) और देशबंधु की बंगाली मीठी दही संग में मैदे की लूची- चने की दाल प्रसिद्ध रही है ,जो मुझे प्रिय थी तब...। वैसे, काजू बर्फी , मलाई गिलौरी और रस माधुरी ये तीनों ही मेरे सबसे प्रिय मिष्ठान थें। माँ ,को यह पता था, सो उनके पिटारे में इनमें से दो प्रकार की मिठाइयाँ निश्चित ही रहती थीं। परंतु यह तभी मुझे मिलता था, जब हार्लिक्स डाला गया एक गिलास दूध पी लूँ । माँ का यह आदेश मुझे पूर करना ही होता था। इसमें मेरी कोई आनाकानी उन्होंने नामंजूर थी। खैर, माँ गयी, बचपन गया और उनका वह स्नेह भी अतीत की यादें बन दफन हो गया। वह आखिरी दीपावली जो माँ के साथ गुजारी थी। हम दोनों कितने खुश थें। तब क्या पता था मुझे कि चंद दिनों में ही मैं यतीम हो जाऊँगा, वह भी इस तरह की फिर कभी किसी के आंचल की छांव नसीब नहीं होगी और बंजारा कहलाऊँगा । वो है न एक गीत..
एक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले
मैने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले
ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है...
नियति की यह कैसी विडंबना रही कि सदैव अस्वस्थ रहने वाली माँ ने दीपावली की उस शाम स्टूल के सहारे बारजे पर बैठ मुझे पटाखे फोड़ते न सिर्फ खूब देखा था, वरन् स्वयं भी उन्हों रोशनी एवं फूलझड़ी जलाई थी। उसी दीपावली छोटे नाना जी ने उपहार में मुझे मंहगी एचएमटी की कलाई घड़ी दी थी। मैंने उनकी दुकान से मिठाई के डिब्बों में भरकर बिक्री रुपये उनके दफ्तर तक पहुँचाने की जिम्मेदारी बखूबी जो निभाई थी। और भी बहुत कुछ यादें हैं, मसलन मिट्टी के टोकरी भर खिलौने बाबा ने दिलवाया था। सामने राजाकटरा में ही तो गणेश- लक्ष्मी और खिलौनों की दुकानें थीं । बाबा कहाँ मानने वाले थें, प्यारे ये देखों, यह लोगें.. सिर हिलाते हुये दादा- दादी , पुतना का स्तन पान करते कृष्ण , रुपपरी और भी तरह- तरह के खिलौने लेकर आते थें हम दोनों..। उस दीपावली बाबा ने बारजे को जगमगाने के लिये लिंची और अंगूर नुमा झालर मुझे खुश करने के लिये खरीदा था, उस समय बाजार म़े नया- नया आया इलेक्ट्रिक दीपक भी..। मेरे पांव एक स्थान पर टिक ही नहीं रहे थें, उस दीपावली को ..घर, कारखाना और दुकान का दिन भर चक्कर लगाता रहा। बम की आवाज तो माँ को पिछले वर्ष तनिक भी पसंद नहीं था, वे हृदयरोग से पीड़ित जो थीं। लेकिन, उस आखिरी दीवाली पर वे मुझे ऐसा करने से मुझे बिल्कुल नहींं रोक रही थीं। इसी के अगले माह मेरी परीक्षा थी। कक्षा 6 में मैं अव्वल रहा। माँ के स्वपनों को पूरा किया , लेकिन तब वे मृत्यु शैय्या पर थीं। ठीक से याद नहीं है , सम्भवतः 26 दिसंबर ही था, क्यों कि 25 को तो बड़ा दिन का जश्न था, उस मनहूस सुबह ब्रह्ममुहूर्त में माँ मुझे अनाथ कर गयी। फिर बनारस, मुजफ्फरपुर, कलिम्पोंग, मीरजापुर में कितनी ही दीवाली आई और गई, तन्हाई और दर्द के सिवाय कुछ न मिला..।
इस दीपावली को भी क्या नहीं था मेरे पास ,तरह तरह के मिष्ठान, उपहार , पैसों भरे लिफाफे भी , पर एक वो न था पास में , जो इस मासूम दिल को एहसास करवा सके , इन तीज- त्योहारों को..।
अतः कल रात भोजन तक न मिला , यूँ समझे की मन नहीं था । माँ भी तो मुझसे किये अनेक वायदे तोड़ चली गयी , मानों उपहास कर रही हैं वो भी कि ढ़ूंढ़ते रहो ,इन सितारों में..
वह एक गीत है न ...
कितना आसान है वादे तोड़ देना, कितना मुश्किल है वादा निभाना
कितना आसान है कहना भूल जाओ, कितना मुश्किल है पर भूल जाना..
शशि/ 8 नवंबर2018