यथार्थ को शब्दों के माध्यम से पृष्ठों पर उकरने के लिए ना जाने इस बार मैंने कितनी ही कोशिशें की, पर शायद मंतव्य मेरा पूर्ण नहीं हो पाया।
मैं एक साहित्यकार हूं कहना गलत होगा, पर एक मनमौजी हूॅं मेरा यही परिचय सटीक रहेगा।
इन दिनों एक चेहरा कई बार मेरी आंखों के सामने घूमा करता। घर वापस आते हुए मैंने अक्सर उसे सड़क किनारे अश्लील हरकतें करते हुए देखा था।
एक ही दृष्टि में कोई भी उसे देख कर भांप सकता था कि वह किस काम से वहां खड़ी रहती थी। कई आती-जाती गाड़ियां उसे लिफ्ट भी देती।
भगवान ने उसे बनाने के लिए शायद कुछ अलग ही मिट्टी उपयोग में ली होगी। तराशा हुआ बदन, अच्छी कद काठी, लंबे बाल, तीखे नयन नक्श की वह धनी थी।
उसकी साज-सज्जा, उसका पहनावा, उसके काम का बखान करता हुआ नहीं थकता था। पर फिर से दूसरे दिन फिर एक नई सज्जा में।
1 दिन उसके बारे में कुछ ज्यादा ही जाने की इच्छा बलवती होने लगी।
पता नहीं क्या सोचकर उस दिन मेरे हाथ स्टीयरिंग को घुमा ही नहीं रहे थे।
उसे भी शायद इस बात का अंदाजा हो चुका था कि कोई अजनबी उसे दूर से ही देख रहा है। वह कुछ देर और वही खड़ी इंतजार करती रही कि कोई ग्राहक आए और उसे ले जाए पर ऐसा नहीं हुआ।
आती-जाती गलियों में, सड़कों पर न जाने ऐसे कितने ही ग्राहकों का इंतजार करती देखने को मिल जाती है।
समाज के लोग इन्हें घृणित नजरों से देखते हैं। कभी-कभी बाजारू, वेश्या, रंडी और भी ना जाने कितने ही नामों से इन्हें नवाज दिया जाता है।
समाज का एक बहुत बड़ा तबका इन की गलियों से गुजरने तक को डरता है। एक नाम, नाम नहीं बदनाम जिसे दूर से ही देख कर लोग तौबा कर लेते हैं।
हां जाता भी है समाज का एक वर्ग इनके पास, लेकिन चोरी छुपे रात के अंधेरे में।