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प्रणय पात्र

8 नवम्बर 2016

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रोहित का मोबाईल फिर बजा. अब तक न जाने कितनी बार बज चुका था. इतनी बार बजने पर उसे लगा कि कोई तो किसी गंभीर परेशानी में होगा अन्यथा इतने बार फोन न करता. अनमना सा हारकर रोहित ने इस बार फोन उठा ही लिया. संबोधन किया हलो..


उधर से आवाज आई...भाई साहब नमस्कार, गोपाल बोल रहा हूँ. बहुत समय से बात ही नहीं हो पाई. तुम्हारा मोबाईल है कि उठता ही नहीं और लेंडलाईन पर भी कोई जवाब नहीं है.. शहर में हो भी कि नहीं ? रोहित की दुखती रग पर हाथ रखा गया. वह तो पहले ही परेशान था. अपनी परेशानी किसी से कह भी नहीं पा रहा था. हिम्मत ही नहीं हो रही थी. लगता था कि बात खुलते ही मैं समाज से निष्कासित हो जाऊंगा. किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहूँगा..इसी चिंता में उनका खाना - पीना - सोना सब दूभर हो गया था. ऐसा ही हाल कुछ कमोबेश उनकी पत्नी का भी था.


गोपाल से रोहित की बहुत गहरी दोस्ती थी. उम्र में रोहित 6-7 साल बड़े जरूर थे किंतु उनका आपस के संबंध पर इसका कोई असर नहीं था. वे दोनों हमेशा अपने मन का बात एक दूजे से साझा करते रहते थे. लेकिन इस बार उन्हें इसमें भी संकोच सा हो चला था. गोपाल के बार - बार परेशानी की वजह पूछने पर उनका मुँह खुल ही गया.


बोले गोपाल भाई क्या बताऊँ, कुछ समय से एक दुविधा में फँसा हूँ. किसी से कह भी नहीं पा रहा हूँ और समझ में भी नहीं आ रहा कि करूँ तो क्या करूँ ? मुझे डर लग रहा है कि मैं अब समाज में मुँह कैसे दिखाऊँगा.


इन बातों को सुनकर गोपाल खुद भी परेशान होने लगा. रोहित इतना कमजोर दिल नहीं था कि वह छोटी छोटी बातों से घबरा जाए. उसे आभास होने लगा था कि कोई बहुत बड़ी मुसीबत ही रोहित के गले पड़ी है. बात के गूढ़ तक जाने के लिए गोपाल ने बात आगे बढ़ाया – रोहित भाई ऐसा क्या हो गया है ? आखिर ऐसी कौन सी परेशानी है जिसका की हल ही नहीं है ? कुछ बताओगे भी या परेशान होते रहोगे और परेशान करते भी रहोगे.


रोहित आगे बढ़ा – यार तुम्हारी भाभी ने आज बताया कि कुसुम ने अपनी शादी पक्की कर ली है. यानी उसने अपनी पसंद का लड़का ढूँढ लिया है. अब उसी से शादी करना चाहती है. माँ से जिद करती है – समझाने - बुझाने का उस पर की असर दिखता ही नहीं है. अड़ी है कि बस उसी से शादी करनी है. अब बताओ भई, एक ही लड़की है सोचा था अच्छा घर देखकर धूमधाम से शादी करेंगे. कितने अरमान थे, जो इसकी शादी में पूरे करने थे. अब तो सब के सब धरे रह गए से लगते हैं. सब चकनाचूर हो गए. हम तो लुट गए भई. अब बताओ समाज को क्या मुँह दिखाएंगे.


अब गोपाल को बात समझ आ गई कि रोहित की परेशानी की जड़ क्या है. जिस आपसी श्रद्दा एवं विश्वास के साथ रोहित अपनी बात साझा करते थे, उसी श्रद्धा से गोपाल ने जवाब दिया – रोहित भाई, इसमें जल्दबाजी मत करो. मामला नाजुक तो है ही और अपनी कुसुम के जिंदगी का सवाल है. दो एक दिन ठंडे दिमाग से सोच लिया जाए. कोई न की रास्ता तो निकल ही आएगा.


दो दिन बाद गोपाल खुद रोहित के घर पहुँचे. भाभी जी ने बैठक में चाय लाकर दिया. इसी बीच वे दोनों अपनी पुरानी चर्चा आगे बढा चले. गोपाल बता रहा था कि आज कल लड़कियों में ज्ञान ार्जन के कारण आत्माभिमान बढ रहा है. आत्मनिर्भरता भी बढ़ रही है. इससे वे अपने आपको बेहतर काबिल महसूस करती हें और इसीलिए वे अपना निर्णय खुद लेना चाहती हैं. यहाँ तक तो ठीक है किंतु कौन कितना परिपक्व है इसका सही आकलन करने में कभी कभी चूक हो जाती है. बच्चों को लगता है कि वे अब परिपूर्णता तक काबिल हो गए हैं किंतु उनका अति-आत्मविश्वास उनको छलता रहता है. जिससे अभिभावकों को लगने लगता है कि बच्चों का निर्णय अपरिपक्व है.


खासकर वे लड़कियाँ जिनमें सामर्थ्य अन्यों से अधिक है, यानी ज्यादा इंटेलिजेंट और होशियार हें उनमें इस तरह की जल्दबाजी देखी जा रही है. हमारी कुसुम भी तो है ही ज्यादा समझदार ना, हर काम में माहिर, पढी, डाँस, पाक शास्त्र सब में. यह भी एक ऐसा ही किस्सा लगता है, मेरी राय में अच्छा होगा कि आप और भाभी जी कुसुम से बात कर एक बार उसके प्रणय पात्र से मिलो. उसके बारे में जानो, उसके परिवार वालों के बारे में जानो. यदि लड़का पढ़ा लिखा, अच्छे परिवार का, अपने परिवार का पालन - पोषण करने में सक्षम, सभ्य हो तो केवल जात-पाँत के कारण बात मत बिगाड़ो.


आज तो समाज में ऐसे कई प्रकरण आने लगे हैं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. हमारा ध्येय होना चाहिए कि हमारी बेटी सही घर जाए और ससुराल में खुशी - खुशी जीवन व्यतीत कर सके. इसके अलावा कोई और सुखी रास्ता भी तो नहीं है. हाँ माना आपके सपने तो चकनाचूर हो गए, किंतु आपने वे सपने भी तो कुसुम की खुशी के लिए ही तो सँजोए थे. रोहित बोले - बात तो साफ है, पर गले नहीं उतर रही कि समाज में क्या मुँह दिखाऊंगा.


गोपाल फिर बोल पड़े भाई बच्चों की खातिर कभी - कभी जहर भी पीना पड़ता है ... यही तो दुनियाँ की रीत है... आज कल कालेज के दौरान ही बच्चे अपना प्रणय पात्र ढूँढ लेते हैं. अपने सहेली के भाई से, दोस्त की बहन से, अपने या भाई-बहन के सहपाठी से दिल लगा लेना आजकल आम बात हो गई है. लेकिन समाज की चिंता के कारण वे उसे छिपा कर रखना पसंद करते हैं या फिर अपने दोस्तों तक ही सीमित रखते हैं. परिवार के सदस्यों से ये रिश्ते खास तौर पर छुपाए जाते हैं. इस वक्त उन्हें ख्याल ही नहीं रहता कि उनके अभिभावक उनके ब्याह के लिए क्या क्या अरमान सँजोँए होंगे, खास तौर पर जब वह अकेली लड़की या अकेला लड़का हो. जिन कुछेक को याद रहता भी है तो उन्हें लगता है कि अभिभावक तो त्याग और बलिदान के लिए ही होते हैं. उन्हें उम्मीद ही नहीं विश्वास भी होता है कि उनकी खुशी के लिए अभिभावक अपनी हर खुशी , तमन्ना, इच्छा व सपनों को न्योछावर कर देंगे.


उन पर क्या बीतेगी, इसको तो चिंता का कारण भी नही समझा जाता. और अततः मजबूरी अभिभावकों से यही तो कराती है. पर न जाने ऐसे कितने ही कुसुम समाज के दलदल में फँस जाती होगी, जिन्हें प्रणय-प्रसंग में परिवार वालों का साथ नहीं मिलता. अंततः दोनों पक्षों की जिद पारिवारिक संबंध विच्छेद तक पहुँच जाती है. यह एक खतरनाक मोड़ है, जहाँ किसी को भी नहीं पहुँचना चाहिए. लेकिन जुनून है कि सब करवा देता है. अभिभावक अपने पात्र को और पात्र अपने अभिभावक को खोने में तनिक भी सोचते नहीं हैं और कुछ ही क्षणों में पात्र अपने भरे पूरे परिवार का साथ खो बैठता है.


नर-प्रधान इस समाज में यदि तनया अभिभावकों को त्यागकर अपने साजन के साथ चली जाती है, तो सोचिए –आप पूरी तरह पति और ससुराल वालों की दया पर पल रही होंगी. प्रणय का जुनून तो एक तरफ, लेकिन इस एकाकीपन को जानकर यदि प्रणयपात्र अपने “कुसुम” को गलत रास्ते में ढकेलना चाहे, तो उसके पास कौन सा रास्ता बचेगा - अख्यितार करने को ??? परिवार त्याग दिया, पति साथ नहीं दे रहा बल्कि प्रताड़ित कर रहा तो क्या समाज व ससुराल से सहायता मिलने की उम्मीद की जाए. ऐसे में हालात बहुत डरावने व खतरनाक हो जाते हैं. उस कुसुम का क्या होगा ? आज के समाज में पति द्वारा प्रताड़ित किसी कुसुम के साथ, जो अपने अभिभावकों को त्याग चुकी है, कौन सा समाज और ससुराल खड़ा होगा ? क्या वह अकेली ससुराल व समाज से लड़ पाएगी या घुटने टेकते हुए कोई रास्ता न पाकर घबराया सिहरता मन खुदकुशी की तरफ कदम बढ़ाएगी .


जब कहानी का दुखद अंत हो जाता है, तब परिवार वाले भी अपने किए पर पछताते हैं. इसलिए भलाई इसी में है कि प्रणय प्रसंग के मामले में निर्णय सोच समझ कर ले. पहले तो प्रणय प्रसंग के शुरु होने के कुछ ही समय बाद प्रणय पात्र को अभिभावकों से परिचित कराएँ. जिससे वे भी समयानुसार उसे परख सकें. पात्र को भी डर लगा रहेगा कि परिवार वाले भी उस पर गौर करते है. पात्र में किसी प्रकार का संशय होने पर अपने पात्र को इस बारे में बताया समझाया जाता है.


संशय के समाधान के लिए भी पर्याप्त समय रहता है. बस केवल इस बात को समझने की जरूरत है कि मेरे अभिभावक मेरी खुशी के लिए ही हर निर्णय लेंगे. उनके लिए मेरी खुशी ही सर्वोपरि है. दूसरा प्रणय पर अंतिम निर्णय लेने में यथा संभव अभिभावकों को साथ लेकर चलें. ऐसा नहीं है कि अभिभावक हमेशा तिरस्कार ही करते हैं. बात सही लगे तो उन्हें भी अपनाने में कोई तकलीफ नहीं होगी. सबसे अहम् बात यह कि अभिभावकों का साथ रहने पर शादी – ब्याह के बाद प्रणय पात्र द्वारा अन्य पात्र को निस्सहाय समझ कर कोई गलत काम करने कराने की हिम्मत नहीं कर सकेगा.


आज समाज में प्रत्यूषा बेनर्जी (बालिका वधू की आनंदी) की तथाकथित खुदखुशी की कहानी भी ऐसी ही एक व्यथा लगती है. यदि प्रणय पात्र गलत हो, तो हमारा पात्र पछताता है, साथ ही अभिभावक भी दुखी होते हैं और यदि वह सही हुआ तो भी अभिभावक दुखी होते हैं उन्हें परित्यजित को अपनाना-मनाना पड़ता हैं. वैसे प्रणय प्रसंग जब अपने चरम पर होता है तब पात्रों को अपने प्रणय पात्र के अलावा जग में कुछ भी न दिखता है, न ही सूझता है. जूनून इस कदर सवार होता है कि परिवार तो क्या वे समाज और जग का भी परित्याग करने से नहीं हिचकते. इस पागलपन में उन्हें प्रणय पात्र की पाप्ति के अलावा कुछ भी न भाता है न ही सूझता है.


यह तो अच्छा हुआ कि अपनी बिटिया को आप लोगों पर भरोसा था सो उसने आपसे कह दिया. ऐसे भी तो बच्चे हैं जो अभिभावकों की मनाही के डर से बात बताते भी नहीं हैं और घर छोड़कर प्रणय-पात्र के साथ भाग जाते हैं. उसमें तो अभिभावकों की हालत और बदतर हो जाती है. आपके पास मौका है. जाँच परख लीजिए और तसल्ली कर सामाजिक ब्याह रचा दीजिए. ऐसा लगेगा कि आप लोगों ने ही कुसुम के लिए यह रिशता तय किया है.


किसी तरह गोपाल ने रोहित को समझाया और अंततः खुशी खुशी कुसुम की शादी उसके प्रणय पात्र से ही हो गई . अब दोनों साथ है और बेहद खुश हैं.

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एक रात की व्यथा - कथा बहुत मुश्किल से स्नेहा ने अपना तबादला हैदराबाद करवाया था चंडीगढ़ से. पति प्रीतम पहले से ही हैदराबाद में नियुक्त थे. प्रीतम खुश था कि अब स्नेहा और बेटी आशिया भी साथ रहने हैदराबाद आ रहे हैं. आशिया उनकी इकलौती व लाड़ली बेटी थी. इसलिए उसकी सुविधा का हर

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हार का उपहार बरसों परवानों को, दीपक कीलौ में जलते देखा है,शमा के चारों ओर पड़ेवे ढेर पतंगे देखा है. कालेज में गोरी छोरी कोघेरे छोरों को देखा है,खुद नारी नर की ओर खिंचे,ऐसा कब किसने देखा है. उसने क्या देखा, क्या जाने,किसकी उम्मीद जताती है,कहीं, ढ़ोल के भीतर पोल न हो,यह सोच न क्यों घबराती है. वह करती

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मन दर्पण

14 फरवरी 2017
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मेरी नई पुस्तक मन दर्पण का कवर पेज प्रस्तुत है. पुस्तक अप्रेल 2017 तक प्रकाशित हो जाएगी.

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सँभलिए

19 फरवरी 2017
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सँभलिए --------------- कभी कभी डर लगता है, वो प्यार न मुझसे कर बैठे, साथ मेरा ले भावुक होकर, घरवालों से ना लड़ बैठे। जो थोड़ा परिवार बचा है वह भी टूटा जाएगा, मैं हूँ अकेला, सदा अकेला, कोई मुझसे क्या कुछ पाएगा।। दोष न दे वो भले मुझे पर, खुद को माफ करूँ कैसे?

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एक पुस्तक की प्रूफ रीडिंग

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एक पुस्तक की प्रूफ रीडिंग सबसे पहली बात - “प्रूफ रीडर का काम पुस्तक में परिवर्तन करना नहीं है, केवल सुझाव देने हैं कि पुस्तक में क्या कमियां है और उनका निराकरण कैसे किया जाए. अच्छे प्रूफ रीडर पुस्तक उत्कृष्टता बढ़ाने के लिए भी सुझाव दे सकते

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मेरी दूसरी पुस्तक मन दर्पण का आवरण

9 मई 2017
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ISBN 978-81-933482-3-1 गूगल सर्च कर, ऑर्डर कर सकेंगे. अभी प्री-सेल शुरु है. पुस्तक 20 मई से 1 जून के बीच प्रकाशित होने की उम्मीद है.

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पुस्तक प्रकाशन

22 मई 2017
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पुस्तक प्रकाशन पुस्तक प्रकाशन हर रचनाकार, चाहे वह कहानी कार हो, नाटककार हो या समसामयिक विषयों पर लेख लिखने वाला हो, कवि हो या कुछ और, चाहेगा कि मेरी लिखी रचनाएं पुस्तक का रूप धारण करें. हाँ शुरुआती दौर में लगता है कि यह किसी के लिए

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निर्णय ( भाग - 1)

2 जून 2017
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निर्णय ( भाग -1)बी एड में अलग अलग कॉलेजो से आए हुए अलग अलग विधाओंके विद्यार्थी थे । सबकी शैक्षणिक योग्यताएँ भी समान नहीं थीं । रजत इतिहास में एमए था । उसे लेखन का शौक था और वह बहुत अच्छा वक्ता भी था । उसके लेख व कविताएँअक्सर पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे । प्

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निर्णय ( भाग - 2)

2 जून 2017
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निर्णय ( भाग - 2 ) रजत भी समझ नहीं पा रहा था कि कैसे अपनी भावना संजनातक पहुँचाए। डर भी था कि संजना उसकी बात से नाराज हो गई तो वह उसे हमेशा के लिए हीखो देगा। वह अजब पशोपेश में पड़ा हुआ था।कॉलेज के वार्षिकोत्सव में रंजना ने कई कार्यक्रमोंमें भाग लिया था । एक नाटिका में

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मन दर्पण

2 जून 2017
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मेरी दूसरी पुस्तक मन दर्पण 25 मई 2017 को प्रकाशित हो चुकी है. पाठकगण गूगल पर - ISBN 978-81-933482-3-9खोज कर ई बुक या पेपरबैक आर्डर कर सकते हैं.ईबुक की कीमत रु.100 तथा पेपरबैक की कीमत रु.175 रखी गई है.पेपरबैक पर रु 60 प्रति पुस्तक का अतिरिक्त डाक खर्च लगेगा जो

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एक पौधा

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पर्यावनण दिवस 5 जून के अवसर पर...एक पौधा.मधुवन मनमोहक है,चितवन रमणीय है,उपवन अति सुंदर हैऔर जीवन से ही प्रदुर्भाव है इन सबका.फिर जब जीवन के उपवन से,मधुवन के चितवन तक,हर जगह‘वन ‘ ही की विशिष्टता है.तो क्यों न हम वन लगाएँ ?आईए शुरुआत करें,और लगाएँ....एक पौधा.......

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निर्णय

23 जून 2017
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बी एड में अलग अलग कॉलेजो से आए हुए अलग अलग विधाओं के विद्यार्थी थे । सबकी शैक्षणिक योग्यताएँ भी समान नहीं थीं । रजत इतिहास में एम ए था । उसे लेखन का शौक था और वह बहुत अच्छा वक्ता भी था । उसके लेख व कविताएँ अक्सर पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे । प्रिया ने बी

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संप्रेषण और संवाद

26 अगस्त 2017
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संप्रेषण और संवाद संप्रेषण और संवाद आपके कानों में किसी की आवाज सुनाई देती है. शायद कोई प्रचार हो रहा है. पर भाषा आपकी जानी पहचानी नहीं है. इससे आप उसे समझ नहीं पाते. संवाद तो प्रसारित हुआ, यानी संप्रेषण हुआ, प्राप्त भी हुआ, पर संपूर्ण नहीं हुआ क्योंक

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ये कैसा दशहरा ये कैसा दशहराआज मेरे देश में ये क्या हो रहा है.दहशत भरी है हवा में,डर लग रहा है,जगह जगह यहाँ तो रक्तपात हो रहा है. कहीं इस देश मेंइस दशहरा में रावण की जगह,शायद, राम तो नहीं जल रहा है.पता नहीं कब से,हर दशहरे रावण जल रहा है

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डिजिटल इंडिया – मेरा अनुभव.

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डिजिटल इंडिया – मेरा अनुभव. उस दिन मेरे मोबाईल पर फ्लेश आया. यदि आप जिओ का सिम घर बैठे पाना चाहते हैं तो यहाँ क्लिक करें. मैंने क्लिक कर दिया. मुझे अपना नाम पता, आधार नंबर देने को कहा गया. मैंने दे दिया. फिर मुझसे पूछा गया कि आप जिओ सिम कब और कहाँ चाहते हैं. पता और समय

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13 फरवरी 2018
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टूटते बंधनपाश्चात्य सभ्यता के अनुसरण की होड़ में जो सबसे महत्वपूर्ण बातेंसीखी गई या सीखी जा रही है उनमें जो सर्वप्रथम स्थान पर आता है वह है बंधन मुक्तहोना. जीवन के हर विधा में बंधनों को तोड़कर बाहर मुक्त गगन में आने की प्रथा चलपड़ी है. यहाँ यह विचार का या विमर्श का विषय नहीं है कि यह उचित है या अनुच

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व्यवस्थापकगण एवं पाठकगण शब्द नगरी ने अपने डेशबोर्ड पर जाने के लिए बहुत सारी अड़चनें पैदा कर दी हैं. हर बार शब्दनगरी खोलने पर मेल वेरिफाई करने को कहा जा रहा है और तो और यह भी संदेश मिल रहा है कि मेल नहीं मिलने की हालात में अ

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