बी एड में अलग अलग कॉलेजो से आए हुए अलग अलग विधाओं के विद्यार्थी थे । सबकी शैक्षणिक योग्यताएँ भी समान नहीं थीं । रजत इतिहास में एम ए था । उसे लेख न का शौक था और वह बहुत अच्छा वक्ता भी था । उसके लेख व कविता एँ अक्सर पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे । प्रिया ने बी कॉम किया था. दिशा ने एम ए बीच में ही छेड़कर बी एड करने का फैसला लिया था घर की मजबूरियों के कारण. संजना ने बी ए किया था और बी एड के बाद एम ए करने का सोचा था । उसे भी लिखने का शौक था लेकिन घर के माहौल के कारण वह अपनी कविताएँ और शायरियाँ सबसे छुपाकर रखती थी ।
पिताजी पुराने विचारों के थे और दसवीं कक्षा के बाद आगे पढ़ने की अनुमति संजना को बहुत सी अलिखित शर्तों पर ही मिली थी। सत्र जुलाई में शुरू हुआ था और बी एड कॉलेज में हर वर्ष की तरह गुरूपूर्णिमा का कार्यक्रम मनाया जाने वाला था। प्रशिक्षु शिक्षक एक दूसरे से परिचित हो जाएँ और उनमें छिपी प्रतिभा भी सामने आए यही इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य था। कार्यक्रम में कई प्रतिभाएँ सामने आईं। रजत ने अपनी कविताएँ पढ़ीं तो सभागृह तालियों से गूँज उठा। प्रिया ने भरतनाट्यम से समां बाँध दिया।
अब संजना की बारी आई उसने मीरा का भजन गाना शुरू किया.....
"ए री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद ना जाणे कोय" मंत्रमुग्ध से सभी सुनते ही रह गए।
आवाज में मधुरता के साथ दर्द का अनोखा संगम था। कार्यक्रम पूरा होने के बाद जलपान के साथ एक दूसरे से मिलने मिलाने का दौर शुरू हुआ। संजना अपनी सहेलियों के साथ बातों में व्यस्त थी और दूर खड़ा रजत उसे एकटक निहारे जा रहा था। अचानक संजना का ध्यान उस तरफ गया। दोनों की नजरें मिल गईं और रजत ने झेंपकर आँखें चुरा लीं । अगले दिन क्लास में पहुँचते ही संजना का सामना रजत से हुआ। औपचारिकता के नाते मुस्कुराहटों का आदान प्रदान हुआ।
रजत तो मानो बात करने का बहाना ढूँढ़ रहा था। रजत --"आप बहुत अच्छा गाती हैं।
" संजना --"आप भी अच्छा लिखते हैं, मुझे पसंद आईं आपकी कविताएँ।
बात वहीं रूक गई क्योंकि सामने से राघवन सर आ रहे थे।
राघवन सर सोशियोलॉजी पढ़ाते थे। लेक्चर शुरू होने के पाँच मिनट पहले ही सर क्लास में पहुँच जाते थे। संजना हमेशा दरवाजे के सामने वाली पहली बेंच पर बैठती थी। उसके पीछे उसकी दोनों सहेलियाँ दिशा और प्रिया बैठती थीं। लड़कियाँ एक तरफ, तो लड़के दूसरी तरफ बैठते थे। सोशियोलॉजी विषय जरा नीरस सा लगता था। दिशा और प्रिया जरा ज्यादा ही बोर हो रहे थे और राघवन सर के लेक्चर में जरा सी भी बात करना खतरे से खाली नहीं था। पर करें तो क्या करें ? चलो, लिखकर बातें करते हैं.
दिशा ने नोटबुक में लिखा - "प्रिया, यार ये सोशियोलॉजी किसने बनाई है ?"
पास बैठी प्रिया ने पढ़ा और उसी के नीचे लिखकर जवाब दिया - "मुझे क्या मालूम ? रुक, संजना से पूछते हैं।"
राघवन सर बोर्ड की तरफ घूमे कि संजना ने हलका सा सिर घुमाकर दोनों को चेताया - "प्रिया, दिशा, सर देख रहे थे तुम दोनों को।"
तब तक नोटबुक संजना की बेंच पर सरका दी थी दिशा ने । संजना ने उसे खोला और पढ़ा। एक शरारती मुस्कान उसके चेहरे पर बिखर गई।
उसने नीचे लिखा - "मुझे लगता है, राघवन सर ने ही बनाई होगी।"
नोटबुक फिर पिछली बेंच तक पहुँचाने के चक्कर में संजना पकड़ी गई।
"संजना, स्टैंड अप ! "राघवन स्वर की गंभीर आवाज के चढ़े स्वर से संजना चौंककर खड़ी हो गई।
"क्या चल रहा है ? कब से देख रहा हूँ मैं तुम तीनों को। इधर लाओ वो नोटबुक।"
संजना ने जरा सी गर्दन तिरछी कर पीछे बैठी प्रिया को घूरा कि - मुझे फँसा दिया ना !!
प्रिया ने हलके से आँखों में ही इशारा किया कि 'जा यार, दे दे नोटबुक। देखा जाएगा जो होगा सो।'
लाचार होकर संजना ने नोटबुक सर के हाथ में पकड़ा दी। कुछ पन्ने पलटे सर ने और संवादों पर सरसरी नजर दौडाई। एक व्यंग्य भरी मुस्कुराहट के साथ सर संजना को घूरते हुए सर की आवाज गूँजी,
"अच्छा, तो सोशियोलॉजी मैंने बनाई है?" सर के इतना कहते ही सारी क्लास में हँसी की लहर दौड़ गई और सबकी नजरें संजना पर टिक गईं।
"आपसे मुझे ये उम्मीद नहीं थी संजना । मत भूलो कि आप लोग भावी शिक्षक हो । बचपना छोड़कर जरा गंभीर होना सीखो...."
एक लंबा चौड़ा भाषण दिया सर ने और अंत में नोटबुक संजना को लौटा दी। वह रुआंसी हो चली थी। अनायास ही उसकी नजर लड़कों की अंतिम पंक्ति में पहली बेंच पर बैठे रजत पर चली गई जो मंद मंद मुस्कुरा रहा था। राघवन सर के लेक्चर के बाद दो लेक्चर और हुए। संजना ने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा. दिशा ने बात करने की कोशिश की पर कोई जवाब नहीं दिया। तीसरे लेक्चर के बाद आधे घंटे का ब्रेक था। जेसना मैम के जाते ही संजना प्रिया पर बरस पड़ी।
"तुम्हारी वजह से मुझे डाँटा सर ने..." प्रिया - "अच्छा ! तुमने कुछ नहीं लिखा था उसमें? चलो, गुस्सा छोड़ो, कैंटीन चलते हैं।"
संजना - "तुम लोग जाओ, मेरा मन नहीं है।" ब्रेक में दो चार लोग ही रह गए थे क्लास में।
रजत मौका पाकर संजना के पास आया। "आपको ज्यादातर गंभीर ही देखा है, आज पता चला कि आप शरारत भी कर लेती हैं।
संजना - "क्यों ? नहीं कर सकती? हर इंसान में एक बच्चा छुपा होता है, मुझमें भी है।"
रजत -"हाँ, वो तो दिख ही रहा है। आज भूखे रहना है ?"
संजना-"मेरा टिफिन है, पर खाने का मन नहीं। आप खाएँगे थोड़ा ?"
रजत-"निकालिए, नेकी और पूछ पूछ?"
इस तरह के छोटे छोटे वाकये क्लास में होते ही रहते और संजना और रजत को तकरार व मनुहार के मौके मिलते रहते। नोंकझोंक होती पर रजत के मजाकिया स्वभाव के आगे संजना की नाराजगी टिक ना पाती। अब अक्सर कॉलेज लाइब्रेरी में दोनों साथ पढ़ा करते। रजत जब भी कुछ नया लिखता, सबसे पहले संजना को सुनाता था।कुछ प्रेम कविताएँ भी लिखी थीं उसने, जो स्पष्ट रूप से संजना की ओर इंगित करती थीं। संजना भी रजत की ओर अजीब सा खिंचाव महसूस करने लगी थी, लेकिन संस्कार कुछ ऐसे पड़े हुए थे कि उस अनुभूति को प्रेम का नाम देने की हिम्मत ना होती। रजत भी समझ नहीं पा रहा था कि कैसे अपनी भावना संजना तक पहुँचाए। डर भी था कि संजना उसकी बात से नाराज हो गई तो वह उसे हमेशा के लिए ही खो देगा। वह अजब पशोपेश में पड़ा हुआ था। कॉलेज के वार्षिकोत्सव में रंजना ने कई कार्यक्रमों में भाग लिया था । एक नाटिका में रजत भी साथ था । प्रेक्टिस के दौरान एक दूसरे को समझने के जानने के मौके मिले । संजना अक्सर रजत की पसंद की चीज़ें टिफिन में लाती और उसे खिलाती। अपने प्रेम की अभिव्यक्ति का एक यही तरीका मालूम था उसे।
कालेज के पिछले हिस्से में बड़ा सा हरा भरा उपवन और एक मंदिर था। वहाँ कई सघन वृक्ष थे। उनमें से एक गुलमोहर का वृक्ष संजना को बड़ा प्रिय था। वह और रजत कभी कभी गुलमोहर के नीचे बैठते थे तब मजाक में रजत कहता, -
'चलो, ये गुलमोहर तुम्हारे नाम कर दूँ। इस पर तुम्हारा नाम लिख दूँ?'
जब वह गुलमोहर पर नाम लिखने के लिए तैयार होता तो संजना रोक देती।
कहती, " मुझे फूलों से ढँका देखना है इस गुलमोहर को, परंतु फूल तो आएँगे मई में और तब तो हम कॉलेज छोड़कर जा चुके होंगे। अप्रेल में परीक्षाएँ हो जाएँगी, तब कौन आएगा यहाँ ?"
रजत - "मैं आऊँगा। तुम भी आना, उन फूलों को अपने आँचल में भर लेना...ढ़ेर सारे !"
इस तरह प्रेम की अदृश्य निर्मल सरिता उन दो दिलों में बहती रहती। संजना मध्यमवर्गीय परिवार से थी और बारहवीं के बाद से ही टयूशन्स पढ़ा कर स्वयं पढ़ती थी। रजत ने उसके बारे में तो सब पूछ लिया था लेकिन अपने बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताया था, सिर्फ इतना कि उसके माता पिता गाँव में रहते हैं और वह यहाँ चाचा चाची के पास रहकर पढ़ता है। न ही संजना ने उससे कुछ पूछा. गुलमोहर उनके अनकहे प्रेम का मूक साक्षी हो गया था। संजना को रजत का आत्मसंयम व शालीन व्यवहार बहुत प्रभावित करता था। वह अपने गीतों और कविताओं को संजना को सुनाता। कुछ गीतों में छिपे संदेश को समझकर संजना की नजरें झुक जाती।
आखिर वार्षिकोत्सव का दिन आ गया। सारे कार्यक्रम सफल रहे।
संजना ने गायन स्पर्धा में अपना प्रिय गीत 'हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू' गाया.
तो रजत को महसूस हुआ कि यह गीत सिर्फ उसी के लिए गाया गया है। कार्यक्रम पूरा होते ही उसने संजना को ढूँढ़ा और एक मुड़ा हुआ कागज उसके हाथ में देकर कहा, "इसे पढ़ लेना बाद में।"
संजना कुछ कह पाती तब तक रजत को ढूँढ़ते हुए दीपक वहाँ पहुँच गया। बात अधूरी रह गई।
संजना ने वहीं कागज खोल कर पढ़ा। कुछ लिखा था.... लिखा था -'संजना, तुम मेरी प्रेरणा हो।'
उन शब्दों ने संजना से वह कह दिया जो अन्य किसी भी तरह व्यक्त कर पाना संभव ही नहीं था। रात भर में संजना ने उन पाँच शब्दों को पाँच सौ बार पढ़ा होगा। लेकिन प्यार के उस उपहार को पाकर खुश होने के साथ साथ उसकी आँखें बरस भी रही थीं। मन घबरा सा रहा था। पिताजी के क्रोध की कल्पना थी उसे !
अगले दो दिन वह रजत से अकेले मिलने से बचती रही। जवाब माँगेगा तो क्या कहेगी ? इधर घर में उसकी सगाई की बात चल रही थी। अगले सप्ताह लड़के के घरवाले उसे देखने आने वाले थे। आखिर उसने सोच लिया कि वह रजत से खुलकर बात करेगी। कब तक छुपाएगी अपनी भावनाओं को? अगले महीने प्रिलीमिनरी परीक्षाएँ शुरू हो जाएँगी। इस तरह मन भटकता रहेगा तो पढ़ाई कैसे होगी ?
अगले दिन लेक्चर्स के बाद उसने स्वयं जाकर रजत से कहा कि उसे कुछ कहना है। दोनों अपनी पसंदीदा जगह गुलमोहर के नीचे जा बैठे।
बात रजत ने ही शुरू की – "संजना, तुम मुझे पसंद करती हो?"
संजना ने एक बार उसकी ओर देखकर पलकें झुका लीं।
रजत - "मैं तुम्हारी खामोशी को हाँ समझता हूँ। तुमने कभी मेरे बारे में जानना नहीं चाहा। संजना, मैं तुम्हें धोखे में नहीं रखना चाहता। हमारे यहाँ शादियाँ बहुत कम उम्र में हो जाती हैं। मैं सोलह वर्ष का था, तभी पिताजी के एक मित्र की बेटी से मेरी शादी कर दी गई। मैं विरोध भी नहीं कर पाया। अभी गौना बाकी है। मेरी पत्नी जिसे मैंने कभी पत्नी नहीं माना, वह अपने मायके में है। मैं उस लड़की को जानता नहीं, प्यार नहीं करता, कैसे निबाहूँगा उसके साथ ? संजना, तुम मेरी बात समझ रही हो ना ?"
संजना अब तक वैचारिक तूफानों में घिर चुकी थी. इतना बड़ी बात अब तक छुपाए रखी. मैं और मेरा प्यार किसी को अपने अधिकार से वंचित कर रहा है. मैं एक स्त्री होकर एक स्त्रीका हक कैसे मार सकताी हूँ, मेरा प्यार साझा भी तो नहीं किय़ा जा सकता, उस यौवना से... अनायास इन वैचारिक तूफानों से गिरे संजना ने एक कठोर जीवन निर्णय ले लिया.
उधर रजत कह ही रहा था - "संजना, प्लीज मुझे गलत मत समझो। मैं उससे तलाक ले लूँगा।
तुम मेरी प्रेरणा हो, मेरी कविता, मेरे गीत सब तुमसे हैं। तुम मेरा साथ दोगी ना ? कुछ तो बोलो..."
संजना कई क्षणों तक सुन्न सी बैठी रह गई। फिर उसने धीरे से रजत के दोनों हाथ पकड़कर खुद से दूर कर दिए।
बिना एक भी शब्द बोले उसने अपना पर्स उठाया और शिथिल कदमों से वहाँ से चली गई।
रजत में इस खामोश तूफान का सामना करने की हिम्मत नहीं थी। वह स्तब्ध सा वहीं बैठा रहा।
उसके बाद संजना एक सप्ताह तक कॉलेज नहीं आई। दिशा के हाथों उसने छुट्टी का प्रार्थना पत्र भेज दिया था। सबको यही पता था कि वह कजिन की शादी में जयपुर गई है।
एक सप्ताह बाद संजना कॉलेज आई तो उसके दोनों हाथों में गहरी लाल मेंहदी रची हुई थी और अनामिका में एक खूबसूरत सी सोने की अँगूठी थी। उसने हल्के पीले रंग की साड़ी पहन रखी थी। लंबे घने बालों की ढीली चोटी लहरा रही थी।
"हाय ! कहाँ गुम हो गई थी इतने दिन?"
संजना को देखते ही सहेलियों ने उसे घेर लिया। तब तक मेंहदी और सगाई की अँगूठी पर उनकी नजर पड़ चुकी थी।
"एन्गेजमेंट ? सच्ची ? इतनी बड़ी खुशखबरी छुपाई हमसे ! सोचा होगा सगाई में सारी क्लास को बुलाना पड़ेगा !
चलो, कोई बात नहीं, शादी में सारी कसर निकालेंगे। बधाई हो,संजना !"
बधाइयों का सिलसिला शुरू हो गया था, सबकी नजर बचाकर संजना ने आँखों की कोरों पर रुकी बूँदों को पोंछ लिया।
तब तक विस्मय विमूढ़ सा रजत खुद को सँभालते हुए आगे आया और कहा – "बधाई हो संजना !"
इसके बाद एक क्षण भी वहाँ रुकना उसे भारी हो रहा था। वह थके थके कदमों से क्लास से बाहर चला गया।
आज पच्चीस वर्ष गुजर गए । संजना अपने पति और दो बेटों के साथ संतुष्ट और खुश है। परीक्षा के बाद उसने कभी रजत को नहीं देखा, ना ही उसके बारे में जानने की कोशिश की।
पर हर साल जब गुलमोहर खिलता है या कोई फूलों से लदा गुलमोहर का पेड़ दिखता है तो संजना को वे दिन जरूर याद आते हैं.
अपने निर्णय पर वह बहुत खुश है, उसे कोई पछतावा नहीं है ।
संजना को आज भी लगता है कि उसका निर्णय समय पर और सही था.
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