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प्रवासी मजदूरों का दर्द

Ajay Kesharwani

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कोरोनावायरस के चलते देश में लाक डाउन लगा हुआ है। जिसके चलते अन्य राज्यों में बसे हुए मजदूरों का पलायन हो रहा है। और मजदूर पैदल ही अपने घरों की ओर चल पड़े हैं। इन्हीं मजदूरों पर केंद्रित मेरी ये कविता है।                        बस चले जा रहे हैं। बेबसी क्या है। लाचारी क्या है।      इन मजदूरों से पूछो जो मेहनत करते दिन रात पर जुटा ना पाते इक वक्त का अनाज चले जा रहे हैं। बस चले जा रहे हैं। मंजिल का कोई पता नहीं जिए जा रहे हैं। बस जिए जा रहे हैं। वो  अपनी जिंदगी जिए जा रहे है। रूखा सूखा खा कर के          चले जा रहे हैं बस चले जा रहे हैं। मजबूरी उनकी कोई क्या समझे   दुख दर्द उनका कोई क्या समझे सरकारी आती हैं। सरकारे जाती हैं। दिलासा देती हैं। उम्मीद जगाती हैं। और सत्ता में आने पर       एक पल में सब वादा तोड़ जाती है।  जो भी सरकारें बनती हैं।           पूंजीपतियों की ही जेबें भरती है। दोष किसी का भी हो। पिसते तो हैं। मजदूर बेचारे बड़ी आशाएं होती हैं। इनको इन राजनेताओं से किंतु अपनी तिजोरी भरने से        इन नेताओं को फुर्सत नहीं मिलती तर्क वितर्क करते हैं।        जो परेशान है मजदूर बेचारे      उन पर ही राजनीति करते हैं। फैली है विकट महामारी देश में      हाल क्या है।पूछो         जाकर कोई मजदूरों से सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल रहे हैं।          और चले ही जा रहे हैं। कितने तो लहूलुहान हुये             कितनों ने अपनी जान गंवाई देख के हालत मजदूरों की               आंख मेरी भर आयी भूखे हैं। प्यासे हैं।          साथ में छोटे-छोटे बच्चे हैं।  फिर भी वो चल रहे हैं। आश नहीं रही किसी से   कि आकर कोई मदद करेगा। इसलिए वो चल रहे हैं। देश के मजदूर पैदल चल रहे हैं। देश के राजनेता                मूकदर्शक बने हुए हैं। आकर के इनकी कोई आज मदद कर दे बड़ी दुआ देंगे बेचारे       है। विपत्ति के सारे ही मारे इनको इनके घर तक तो पहुंचा दो बिछड़े हुए परिजनों से तो मिलवा दो कुछ ना हो सके तो              खाने-पीने का इंतजाम तो करवा दो  देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। मजदूर मजदूर नहीं रहेगा तो                     देश नहीं चल पाएगा। विकास उन्मुख भारत विकास नहीं कर पायेगा मजदूर है तो देश हैं।           इसे भलीभांति से समझना होगा   जो है। प्रवासी मजदूर           उनकी हम स 

pravasi majduron ka dard

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