।। गीत ।।
मन विसर्जित कैंसी व्यथा
मन आखिर कैंसे बताए तुम्हे...
राह डले पुष्प कांटे हुए,
छाले कैंसे आखिर बताए तुम्हे...
मन नीड़ में तुम हो बसे
जख्म देखो, दवा तुम हो गए ।
ख्वाईश अब कुछ भी न है
आश मन की सदा तुम हो गए ।
मन सहज नादान है,
प्रेम आखिर कैंसे जताए तुम्हे...
सावन का था वो समा
चले तुम, हम पतझड़ हुए ।
गंगा के तट पर वो शोखियां
याद आ रहीं है, तेरी नटखट अदा ।
विदा को बहुत दिन हो गए
लौट आओ मन पुकारे तुम्हे...
कारीगरी हमको आती नही,
आखिर कैंसे तरासे तुम्हे...
- रोहित कुमार "मधु"