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प्राचीन कालीन आश्रम व्यवस्था

4 मार्च 2022

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प्राचीन कालीन आश्रम व्यवस्था

प्राचीन कालीन भारतीय इतिहास के अध्ययन से हमें ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में आश्रम व्यवस्था का विशेष महत्व था। जिसके विषय में प्राचीन कालीन ग्रंथों से हमें विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
हमारी भारतीय संस्कृति और सभ्यता अपने अंदर विशेष आलौकिक ज्ञान को छुपाए हुए है। जिनके अध्ययन से हमें यह ज्ञात होता है कि हमारे पूर्वज कितने बड़े विद्वान और दूरदर्शी सोच रखने वाले व्यक्ति थे।
उनकी सोच आज के आधुनिक युग के विद्वानों से कई गुना ज्यादा और सारगर्भित थी।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण वानप्रस्थ आश्रम व्यवस्था है।
प्राचीन भारत में व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन चार आश्रमों में बंधा हुआ है। जिससे व्यक्ति पा पूरा जीवन ही अनुशासित रहता था।
इन चारों आश्रमों के माध्यम से व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता था और व्यक्ति इन आश्रमों में बंधा होने के कारण धर्म और नैतिकता का विशेष ध्यान रखता था।
चार आश्रमों में पहले आश्रम को ब्रम्हचर्य आश्रम दूसरे को गृहस्थाश्रम कहा गया है।
गृहस्थ आश्रम का विशेष महत्व था।
उसके बाद आता था वानप्रस्थ आश्रम वानप्रस्थाश्रम उस समय क्यों बनाया गया था इस विषय पर अगर हम गहराई से विचार करें तो हमें समझ में आ जाएगा की इसकी महत्ता क्या थी और आज के आधुनिक युग में क्या हो सकती है।
मैं अपने लेख में आज इसी विषय पर लिखने की कोशिश कर रही हूं।
प्राचीन काल में आश्रम व्यवस्था में ब्रम्हचर्य आश्रम में बालक को शिक्षित करने के साथ साथ नैतिक मूल्यों की शिक्षा भी दी जाती थी।
बालक जब युवा होकर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था तो उसके माता-पिता जिन्होंने अपने गृहस्थ आश्रम के कर्तव्यों और दायित्वों का निर्वहन कर लिया था वह लोग वानप्रस्थाश्रम अपना लेते थे।
वानप्रस्थाश्रम क्या है पहले इसके विषय पर कुछ प्रकाश डालते हैं वानप्रस्थ जीवन का मतलब है कि जब व्यक्ति अपने सभी दायित्वों को पूरा कर लेता है, तो वह आदमी अर्थात पति-पत्नी कभी गुरू के आश्रम में कभी अपने ही बाग में या अपने घर के एक अलग हिस्से में रह कर ईश्वर में ध्यान लगाने लगते थे क्योंकि हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति होती है।
व्यक्ति जब तक गृहस्थ आश्रम में रहता है वह अपने सामाजिक दायित्व को पूरा करने में लगा रहता है। इसलिए अपने बच्चों को दायित्व सौंपने के बाद वह अपने गृहस्थ जीवन का त्याग कर वानप्रस्थ जीवन को अपनाता था।
इसके अनेकों लाभ थे पहला लाभ व्यक्ति ईश्वर के ध्यान में लीन होकर अपने मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त करने का प्रयास करता था।
दूसरा जब व्यक्ति अपने बच्चों को दायित्व सौंप देता था तो उसके फ़ैसलों में दखल नहीं देता था जब-तक उनसे सलाह न मांगी जाए।
इसका सबसे बड़ा लाभ यह होता था कि जो दो पीढ़ियों के विचारों में अंतर दिखता है उसमें टकराव की स्थिति उत्पन्न नहीं होती थी।

माता-पिता न तो बच्चों के जीवन में दखलंदाजी देते थे और न बच्चे अपने माता-पिता के जीवन में
माता-पिता जब अपने अधिकारों को अपने बच्चों को सौंप देते थे तो उसमें फिर दख़ल नहीं देते थे।
इसलिए दोनों पीढ़ियों में टकराव होने की संभावना समाप्त हो जाती थी।
तीसरे सबसे बड़ा लाभ यह था कि घर में सास बहू के टकराव की स्थिति आती ही नहीं थी घर की बहू अपने घर को अपने तरीके से चलाती थी। जहां वानप्रस्थाश्रम अपनाने से माता-पिता अपने जीवन को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर अपने मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करते थे। वहीं बेटे और बहू अपने हिसाब से अपने घर गृहस्थी को संचालित करते थे।
इसलिए दोनों पक्षों में प्रेम, विश्वास और सौहार्द्र का वातावरण बना रहता था।
आज के युग में संयुक्त परिवार टूटते जा रहें हैं इसका मुख्य कारण है दो पीढ़ियों और दो विचारधाराओं में टकराव आज के आधुनिक युग में माता-पिता वानप्रस्थाश्रम तो नहीं जा सकते।
लेकिन यदि माता-पिता अपने विचारों में थोड़ा परिवर्तन कर लें और जब अपनी जिम्मेदारियों को बहू को दें दें तो फिर उन पर अपने विचारों को थोपें नहीं उन्हें अपनी गृहस्थी अपने तरीके से चलाने दें।
जब बच्चे अपने माता-पिता को पूरा सम्मान और प्यार दे रहें हो तो माता-पिता को भी चाहिए कि वह अपने मन को वानप्रस्थाश्रम में रहने वालों की तरह बना लेना चाहिए।
बच्चों को भी अपने माता-पिता के मान सम्मान का पूरा ध्यान रखना चाहिए यह सब संस्कारों से ही सम्भव हो सकता है।
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे पूर्वज कितने दूरदर्शी थे उन्होंने यह जाना और समझा था कि दो पीढ़ियों और दो विपरीत विचारधाराओं में एक साथ रहने से टकराव की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
इसलिए हमारे पूर्वजों ने इस सम्भावना को ही समाप्त करने के नियम बनाएं जैसे वानप्रस्थाश्रम जिसमें माता-पिता अपने बच्चों को जिम्मेदारी सौंपने के बाद प्रवेश करते थे।
कहने का तात्पर्य यह है कि वह अपने घर गृहस्थी की जिम्मेदारी अपने बच्चों को सौंप कर स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देते थे।
उनके बच्चे अपने जीवन में खुशियों भरा जीवन जीते थे और माता-पिता अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष की ओर अग्रसर होने के लिए अपना मन ध्यान योग और तपस्या में लीन करने लगते थे।
इस प्रकार दो पीढ़ियों में जो विचारों का स्वाभाविक अन्तर होता है और ना चाहते हुए भी आपस में विचारों के टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इससे बचने के लिए हमारे पूर्वजों ने इस आश्रम व्यवस्था का निर्माण किया था और इसका पालन करने से घर समाज दोनों स्थानों पर सुख शांति बनी रहती है।
आज भी यदि घरों में माता-पिता वानप्रस्थाश्रम
का पालन घर में ही रहकर करें मेरा मतलब है कि वह अपने विचारों को व्यक्त जरूर करें पर किसी को मानने के लिए मज़बूर न करें यदि घर के सभी सदस्य यह नियम मानने लगे तो घरों में हो रहे झगड़े बहुत हद तक समाप्त हो सकतें हैं और आज के आधुनिक युग में टूटते हुए संयुक्त परिवार को बचाया जा सकता है।

डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक
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