दूरबीन ले क्यों ढूंढ़ते,
अपने हित की आग,
राजनीति की रोटियाँ,
पायें जिससे ताप ।
पायें आग ताप की,
सिके बस इनकी रोटी,
क्या वीरगति सैनिक,
क्या गरीब की रोटी ।
कितनी भी हो विपदा,
धर्म-कि विरोध करेंगे,
कितनी भी सीधी बात,
देश का अहित कहेंगे ।
हे! रक्तपिपासु जीव,
घृणा के ठेकेदार,
देश, माटी क्या समझें,
देश के जो हों गद्दार ।
गर सच्चा हो विरोध,
तो लोकतंत्र जीतेगा,
अन्धविरोध करोगे,
देश नहीँ जीतेगा ।
देश नहीँ यदि जीता,
तो हारोगे तुम भी,
उजाले को हराकर,
नाचेगा तब तम भी ।
कभी उतार कर फेंको,
निज स्वार्थ के सेहरे,
कभी लगाकर देखो,
देश रक्षा हित पहरे ।
छट जायेगा तम ना होंगे,
विपत्ति के अभ्र घनेरे,
साथ लड़ेंगे छोड़ निज,
स्वार्थ के कूप सब गहरे ।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"