वह शाम ढले घर आता है,
सुबह जल्दी उठ जाता है,
जाने वो कौन सी रोटी है,
वह जाकर शहर कमाता है।
बच्चों के उठने से पहले,
घर छोड़ के वह चल देता है,
बच्चे सोते ही पाता है वह,
जब रात को वापस आता है,
अपने बच्चों के बचपन को,
वह ढ़ंग से कहाँ जी पाता है।
आँखों में गाढ़े काजल से,
वह रोज द्वार को तकती है,
पाजेब बंधी पैरों में पर,
खुशियों से नहीं खनकती है,
कितने सावन की बारिश के,
वह साथ कहाँ बह पाता है।
दो रोटी की ऐसी बन्दिश,
वह ढ़ंग से जीना भूल गया,
बचपन के देखे सपनों को,
यौवन में सीना भूल गया,
फिर से कोई सपना देखे,
इतनी कहाँ फुर्सत पाता है।
वह शाम ढले घर आता है,
सुबह जल्दी उठ जाता है,
जाने वो कौन सी रोटी है,
वह जाकर शहर कमाता है।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”