एक कूप में
जैसे फँसी हो ज़िन्दगी;
आधी-अधूरी-चौथाई ज़िन्दगी;
टुकड़े-टुकड़े बिखरकर
फैली हुई ज़िन्दगी।
समेटकर
सहेजने के प्रयास में
कैकेयी के कोप-भवन सी
और बिफरती हुई ज़िन्दगी;
संवार कर जोड़ने के उधम में
सब कुछ खोकर
शकुंतला के अभिशाप सी ज़िन्दगी।
अपनेपन के अहसास से
सागर सी भरी हुई ज़िन्दगी;
फिर भी,
अन्तरिक्ष के विस्तार सी
रिक्त एकाकी जिंदगी।
दूर रहकर अपनों से
कुछ ऐसी ही
हो गई हैं ज़िन्दगी।
अश्रुओं की तरलता से
चमकती हुई आँखों सी
हंस उठती है ज़िन्दगी;
फिर भी किरकिरी से
दुखती है ज़िन्दगी।
कैसे जिए ज़िन्दगी हर क्षण
जबकि हर-पल
मिट रही हो ज़िन्दगी।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”