जब दो अपरिचित हैं मिलते।
फिर रिश्तों को एक नाम हैं देते।
होता है रिश्तों का सिर्फ रिवाज।
जिसमें छिपा रहता स्वार्थ आज।
चाहत से रंगकर फिर रिश्ते ।
सुखों का छोर थाम फिर लेते।
बोध ना होता कर्तव्यों का जब।
कैसा विधान है रिश्तों का तब।
रिश्तों को नाम देता है हर कोई।
पर उसे निभाता है कोई-कोई।
रिश्तों को हैं सब खूब जोड़ते।
स्वार्थवश पल भर में हैं तोड़ते।
निभा ही न सको जब कोई रिश्ता।
नाम ना दो फिर उसे कोई सस्ता।
रिश्तों को नाम देना आसान यारों।
पर निभाना है बहुत कठिन प्यारों।