वो रात घनी थी, चारों तरफ़ अंधेरा था
निराशा की सर्द स्याही में, रास्ता घनेरा था
वक्त के बेदर्द थपेड़ों से, बिख़रा मेरा बसेरा था
ना बिखरे मेरे सपने, ना टूटा मेरा हौसला
समेटकर अपने अरमानों के शीशे,
मैं चला पथिक अटल अडिग, कर के ऐसा फ़ैसला
गुज़र गई सारी रात, यूं ही तारे गिनते-गिनते
दो कदम जो मैं चला तो, सामने ही सबेरा था।
- Narendra