टूटकर बिखर जाने वाले
अपने प्रियजनों से
जो सम्बन्ध...........
क्या उन्हें सम्बन्ध कह सकते हैं ?
नहीं ।
वे तो महज़
सम्बन्ध हैं स्वार्थ के
स्वार्थ पूरा हो जाये
तो सम्बन्ध
नहीं तो
कुछ नहीं
केवल घृणा ।
एक ऐसी घृणा जो
गले में अटका हुआ
एक काँटा है
न निगलते बनता है
न निकाले बनता है
यह- संसार है ।
निरर्थक भावनाओं पर टिका है ।
काश..
मानव इन भावनाओं से उबार पाता
इस घृणा के भाव से ऊपर उठ
मानव बन जाता
एक दूसरे को गले लगा
संबंधों में प्यार बरसाता
स्वार्थ छोड़ ,
केवल परहित में लग जाता
काश..
मानव
मानव बन पता , मानव बन पाता