साथी
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इस जरा सी जान का ही काम है साथी ।
जिंदगी की राह में गमगीन भटका हूं,
एक घड़ी के साथ से बेआबरू होकर।
थी नहीं जब जिंदगी पर क्या करूं तब भी,
चल रही थी सांस कुछ नाराज -सी होकर।
जख्म देना है अगर तो शौक से दे लो,
जख्म खाने का गिला अब क्या करें साथी ।
इस तरफ अंधेरे में जो बढ़ गए थे पग,
उस समय तूने सहारा था मुझे दिया ।
जिंदगी की शाम की टूटी हुई किरण,
फिर भी मैंने रोशनी का जाम था पिया।
है अंधेरा और दिया भी गुल हुआ जाता,
अब तो बाती को उठाना पड़ रहा साथी।
मुझसे आंखें फेर लीं जिनसे मुझे था प्यार,
और दुश्मन होके बैठे हैं जिगर के यार।
शाम की इस धुंध में मैं टूट ही जाता,
तुमने अपने पर लिया मेरे लिए हर वार।
अब भी है मुझ में ये धड़कन प्यार की बाकी,
आज सीने से लगाना है तुझे साथी।
धड़कनों का सिलसिला अब तेज होने दो,
इस जरा सी जान का ही काम है साथी।
(प्राणेश कुमार)