पाॅलिसी निर्माण में सरकार की अह्म भूमिका होती है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। आज वैश्विक स्तर पर पर्यावरण को लेकर बात की जा रही है, शुद्ध, स्वच्छ एवं स्वस्थ्य पर्यावरण को लेकर कई पर्यावरण विशेषज्ञों तथा वैज्ञानिकों ने चिंता जाहिर की है। भारत के परिपेक्ष्य में मेरा व्यक्तिगत मत यह है कि पर्यावरण को प्रदुषित करने में दो लोगों की अहम् भूमिका है। प्रथम तो वे पूंजिपती जो अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये विकास के नाम पर हजारों, लाखों पेड़ों को काट कर जहरिले धुंआ उगलने वाली चिमनी खड़ा कर रहे हैं। दूसरा भारत की सामाजिक मान्यताएं जो कि नदियों को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। पूंजिपतियों को सिधा करने के लिये आमजनों को जागना होगा और धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं से नदियों को बचाने के लिये हमारे धार्मिक गुरूओं को पोंगापंथी छोड़ कर पूजन सामग्री और अन्य चिजों को नदियों में बहाने से रोकना होगा। लेकिन ये दोनों ही चिजों पर रोक तभी लगायी जा सकेगी जब कि हमारी पंचायती राज व्यवस्था मजबूत हो चाहे वह ग्राम स्तर की पंचायत हो या फिर शहरी स्तर की नगर पंचायत, निगम और पालिका हों।
सरकार को इस बात का एहसास कराना जरुरी है कि पर्यावरण की रक्षा और उसका पोषण करने के लिये उसे लोगों को शामिल करना होगा। जंगलों के सफाये और प्रदुषण की समस्या से निबटने के लिये एकमात्र उपाय संसाधनों का सामुदायिक उपयोग है। निश्चित रूप से जरुरत इस बात की है कि हम आगे बढ़े और सही मायने में लोगों को शक्तियां हस्तांतरित करें, ताकि वे यह फैसला ले सकें की देश को किस दिशा में ले जाना है। वास्तव में जमीनी स्तर पर ही लोग इसे अच्छे ढंग से जानते हैं की प्राकृतिक, मानवीय और सामाजिक पूंजी का क्या हो रहा है, और उनकी पूर्ण भागीदारी ऐसे विकास की रणनीति पर पहुँचने में महत्वपूर्ण है। जो सामंजस्यपूर्ण और संतुलित विकास को बढ़ावा दें। इसलिये यह बेहद जरुरी है कि जो लोग सत्ता में हैं, उन्हें संविधान में बाधा डालना बंद करना चाहिए।
आज के इस आधुनिक समय में जब की सूचना और तकनीक से आम जन लैस है, ऐसे में यह उन पर छोड़ना चाहिए की अद्योगिकीकरण के साथ साथ कैसे पर्यावरण को भी ठीक रखा जाये और यह कार्य जमींन से जुड़ा व्यक्ति ही बता सकता है। ए सी कमरों में बैठ कर कोई भी सरकार इसका फैसला नहीं ले सकती। सरकार को लोगों को सशक्त बनाने और पर्यावरण की रक्षा हेतु संवैधानिक प्रावधानों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। जबकि 73वें संविधान संशोधन द्वारा स्पष्ट रूप से ग्यारहवीं अनुसूची में अनुछेद 243 छ जोड़ी गई है जिसमें कुल 29 विषय पंचायत के कार्य से सम्बंधित हैं, जिसमें-
कृषि विस्तार, भूमि सुधार का कार्यान्वयन, सामाजिक आस्तियों का अनुरक्षण, लघु वन उत्पाद, सामाजिक और फार्म वनोद्योग सहित कई विषय हैं।हमें इस संवैधानिक ढांचे का लाभ जरूर उठाना चाहिए, जो विकेन्द्रिकृत शासन और प्रकृति और लोगों के साथ काम करके वास्तविक विकास की दिशा में आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करता है।
उदाहरणार्थ महाराष्ट्र के नक्सल प्रभावित चंद्रपुर और गढ़चिरौली जिलों में उम्मीदों से भी अधिक ऐसे कार्य हुए जो की सामुदायिक विकास और जनांदोलनों को सार्थक करते हैं। इन जिलों के आदिवासी और परम्परागत वनवासियों में कई लोगों को सामुदायिक वन संसाधनों पर प्रबंधन का अधिकार मिला है। राज्य इन संसाधनों पर स्वामित्व को बरकरार रखे हुए है। अब इसे अन्य प्रयोजन हेतु उपयोग नहीं किया जा सकता। ठीक इसी तरह हरियाणा के गुड़गांव जिले में पचगांव के नागरिकों ने अपनी ग्राम सभा की दो दिनों तक चली कार्यवाहियों में करीब 40 नियमों को अपनाने का फैसला लिया, तेंदू पत्ता एक प्रमुख वन उपज है, लेकिन उसकी कटाई और संग्रहण के लिये जंगलों में लगाये जाने वाले आग से काफी नुकसान होता है। अतः यह फैसला लिया गया की एक आमदनी को भूल के इसे सुरक्षित रखते हुए अन्य आमदनी बढ़ाई जाये। उन्होंने खाने योग्य तेंदू के फल के मार्केटिंग का फैसला किया और अब तेन्दू पत्ता का संग्रहण रोकने से पेड़ स्वस्थ्य हैं तथा फलों की उचित मार्केटिंग से कमाई में दोगुना इजाफा हुआ है।
इस तरह वन संसाधनों के सामुदायिक प्रबंधन से नक्सलवाद से निपटने का भी एक कारगार तरीका निकाला जा सकता है। यह दुःख की बात है की सरकारी तंत्र वन अधिकार अधिनियम के क्रियान्यवन में तो गड़बड़ी कर ही रहे हैं। सरकार भी संविधान की गलत व्याख्या कर इस अधिकार से उन्हें वंचित रखने का खेल कर रही है। वहीं दूसरी ओर यदि नदियों और बांधों की स्वच्छता पर चर्चा करें तो हम यह पायेंगे की सरकार केवल योजना बनाती है, राशि आहरित होते हैं, कागजों पर खर्च भी होते हैं, किन्तु नतीजा कुछ नहीं निकलता। सबसे पहले हमें अपने धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं को लचीला बनाने के लिये धर्म गुरूओं के बिच बैठकर चर्चा करनी होगी कि आखिर क्यों पूजा के बाद फुल, यज्ञ का सामान एवं अन्य चिज नदी या फिर बहते जल में ही प्रवाहित करना है, उसे क्यों न हम जमीन में गड्ढा खोद कर दफन करें। मृत शरीर को नदी में प्रवाहित न करें सहित कई धर्मों एवं जातियों में व्याप्त इन प्रथाओं को बदलने के लिये हमें सर्वप्रथम धर्म गुरूओं से मिल कर उन्हें पर्यावरण एवं स्वच्छता की पाठ पढ़ानी होगी, क्योंकि इनका असर आमजनों पर जल्दी होगा, लेकिन सरकारी तंत्र लाख प्रयास कर लें, ज्यादा कुछ नहीं कर पायेंगी।
नियमगिरि विवाद पर एनसी सक्सेना समिति की रिपोर्ट में इसे अच्छी तरह से रखा गया है कि एक निजी कंपनी को लाभ दिलाने प्रस्तावित खनन स्थल पर खनन की अनुमति देना दो आदिम जनजातीय समूहों को उनके अधिकारों से वंचित करना है। इस तरह के कार्य से देश के कानून से जनजातीय लोगों का विश्वाश खत्म हो जायेगा। फिर भी हमारी सरकारें संविधान के नियमों और कानूनों की अपने स्वार्थ के आधार पर व्याख्या कर पूंजीपतियों को लाभ पहुंचा कर अपनी जेबे गरम करने में लगी हुई हैं। जबकि 2014 में विभिन्न संगठनों और समितियों ने सरकार से यह मांग रखी थी की पंचायत और नगर पालिका जैसे स्थानीय निकायों को पर्यावरण के मुद्दे पर फैसला लेने का अधिकार दीजिये। जैव विविधता प्रबंधन हेतु संसाधनों के उपयोग को नियंत्रित करने, संग्रहण शुल्क वसूलने और प्रोत्साहन भुगतान प्राप्त करने के लिये स्थानीय समितियां बनाई जाये। फिलहाल इन सिफारिशों पर कोई फैसला तो नहीं लिया गया, उलटे सरकार पूंजीपतियों के साथ मिलकर आमजनों को मिले अधिकारों को छिनने के कार्य में लग गई है।
मेरा व्यक्तिगत मत है कि सरकारी तंत्र और स्वयं विभिन्न राज्यों एवं केन्द्र की सरकार को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वोट का लोभ त्याग कर स्वच्छ पर्यावरण हेतु मजबुत इच्छाशक्ति के साथ प्रयास करे और लोगों को सिर्फ जागरूक करने से बात नहीं बनेगी, कानून में स्पष्ट प्रावधान हो और नियमानुसार कार्यवाही हो, सजा मिले अर्थदण्ड लगाया जाये तभी पर्यावरण को सुरक्षित रखने और साफ-सुथरा बनाने की दिशा में जागरूक हो सकेंगे।