आज सुबह की सैर करते समय हमारे गाँव के एक दादा जी रास्ते में टकरा गए। हम तो उन्हें पहचान नहीं पाए, क्योंकि कई वर्ष से उन्हें देखा नहीं था। वह तो उनके साथ उनका पोता था, जो यहीं भोपाल में रहता है, उसने पहचान कराई, तो हमें उनसे दो-चार बातें करने का अवसर मिला। उनके पोते ने हमें बताया कि दादा जी वैसे तो मुंबई में उनके चाचा के साथ रहते हैं, लेकिन कभी-कभी साल भर में एक-दो बार हफ्ते-पंद्रह दिन के लिए हमारे साथ घूमने-फिरने के बहाने चले आते हैं। यूँ ही गांव का कोई भूला-बिसरा अचानक कहीं आते-जाते टकरा जाता है तो गांव की कई बातें ताज़ी होकर कुछ पल को आनंदित कर बैठती हैं। हमें दादा जी से मिलकर बहुत अच्छा लगा। दादा जी के साथ धीरे-धीरे चलते हुए कई भूली बिसरी यादें ताज़ी हुई तो मन को बहुत अच्छा लगा। बातों-बातों में मैंने महसूस किया कि आज भले ही वे मुंबई में रहते हों, लेकिन उनका मन आज भी गाँव में ही बसता है। दादा जी लंगड़ा-लंगड़ा कर चल रहे थे, क्योंकि उनके साथ उसके छुटपन में एक हादसा हुआ था, जिससे उनका बायाँ पैर टूट गया था। इसे मैं एक नासमझी वाला हैरतअंगेज हादसा मानती हूँ। हुआ यह कि जब उनकी आयु यही कोई १७-१८ वर्ष रही होगी, वे गाँव के पास के जंगल में एक दिन गाय-बकरी चरा रहे थे तो उन्हें दूर एक भालू सोता हुआ दिखाई दिया। वे पहले तो उसे देखते रहे और सोचते रहे कि क्या करूँ। लेकिन फिर जाने उनके दिमाग को क्या सूझा कि वे घर दौड़े और एक फरसा लेकर आये। भालू गहरी नींद में था इसलिए उन्होंने उस पर फरसे से यह सोचकर एक तीव्र प्रहार किया कि वे उसे मारकर बहादुर कहलायेंगे। लेकिन यह उनकी नासमझी थी जैसे ही भालू पर प्रहार हुआ वह तिलमिला उठा और उसने फरसा छीनकर गुस्से में उनका एक पैर जो मरोड़ा कि वे आजीवन लंगड़े बन गए। वह तो गनीमत रही कि भालू ने उन्हें जान से नहीं मारा। वे जोर-जोर से चिल्लाये तो उनसे दूर दूसरे चरवाहे और गांव वाले दौड़े चले आये। भालू के भी पिछले पैर पर गहरी चोट लगी थी इसलिए वह लड़खड़ाते हुए बहुत दूर नहीं निकला था। देखते-देखते गांव वाले और आस-पास के गांव वालों की भीड़ जमा हो गई और वे भालू को भगाने लगे। उस समय जंगली जानवरों को मारने पर दंड का कोई प्रावधान तो था नहीं और यदि रहा भी होगा तो ऐसी घटना होने पर गाँव वाले किसी जानवर को जिन्दा कहाँ छोड़ने वाले होते हैं ? ऐसे समय में लगभग सभी लोगों का यही सोचना रहता है कि जैसे भी कोई हिंसक जानवर यदि गांव या उसके आस-पास आया तो उसे जिन्दा नहीं छोड़ना है। सभी ने गांव के प्रधान को कहा कि वे अपनी बन्दूक लाकर भालू को मार गिराए। भालू हो-हल्ला सुनकर डर के मारे एक चीड़ के पेड़ पर चढ़ गया और उससे लिपट गया। प्रधान ने उस पर चार गोली दागी तो बेचारा धड़ाम से नीचे गिर गया। भालू मर गया तो सबने राहत की साँस ली। तब तो ऐसे किस्से आम थे और हम तब अबोध थे, इसलिए ऐसे मौके हमारे लिए किसी मेले या खेल-तमाशे से कम नहीं होते थे, लेकिन आज सोचती हूँ तो बड़ा दुःख होता है कि हम तो नादान तो थे ही लेकिन लेकिन क्या तब हमारे बड़े-बुजुर्ग भी कम नादान नहीं थे?
क्या आपको नहीं लगता कि हम मनुष्यों की तरह ही पशु-पक्षी भी ईश्वर की ही संतान हैं? यदि हाँ तो फिर क्यों हम उनके साथ प्रेम का वह भाव नहीं रख पाते जो ईश्वर ने सबको बनाते समय दिया है। हम क्यों उनका भक्षण पर अपने को श्रेष्ठ समझ बैठते हैं? विचार कीजिए!