कभी तो पर्दा हटाइये
कभी चुप्पी को भी मिटाइये ।
कभी चाँद को दिखाइए
कभी बातों से भी बहलाइये ।।
ये मेरा हक़ है कि तेरे
रश्क़-ए-क़मर से चेहरे को ।
अपने हाथों में लेकर देखूं ,
नहीं है क्या ? ज़रा आप ही फ़रमाइए ।।
बेहद हूँ बेक़रार यूं तो
फ़क़त तेरे वस्ल की ख़ातिर ।
जो न मिल सका तुझसे तो
ख़ुदा के दर पे कहलाऊंगा क़ाफ़िर ।।
तेरी बुर्कापरस्ती पे कहने का
मन हुआ तो ये इज़हार किया है ।
तुम भी तो कुछ कहो,
क्या मैनें तुम्हें बेक़रार किया है ?
नहीं नहीं ये वो बेक़रारी नहीं
जिसमें जिस्म समाते हैं ।
हम तो बस वो हैं
जो रूहों को आज़माते हैं ।।
---- देवराज पटवाल "साहिल"