दुनियां की कुल आबादी के १७.५ % हिस्सेवाला पृथ्वी पर ऐसा कौन सा देश होगा,जहां ७०० से ज्यादा त्यौहार करोड़ों लोगों द्वारा मनाये जाते हैं. भारत के अलावा दूसरे किसी देश की ये खासियत नहीं है. लेकिन इसके बाबजूद हम इसका फायदा नहीं उठा पा रहे हैं. चीनी लोगों को ये बात समझ आ गयी है और वे हमारे बाजार में जबरदस्त मुनाफा कमा रहे हैं. होली से सम्बंधित जो चीजें बाजार में बिक रही हैं उनमे हर एक भारतीय उत्पाद के मुकाबले चीन में बने १९ सामान हैं. मतलब यह की भारतीय और चीनी उत्पादों का अनुपाद १ अनुपात १९ है.
इसका खुलासा एसोचेम सोशल डेवलपमेंट फाउंडेशन द्वारा किया गया है. ए. एस.डी. एफ. ने वर्ष २०१३ के जनुअरी और फ़रवरी महीनों में इलाहाबाद,आगरा,हाथरस,मथुरा,दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी छेत्र ,कानपुर, लखनऊ,बनारस और पटना में होली के लिए रंग बनाने वाले उत्पादों तथा दुकानदारों के बीच यह सर्वे किया था,जिसमे ये नतीजा सामने आया. सर्वे में ये भी पता चला की चीनी उत्पादों के बढ़ते आयात के चलते पिछले तीन साल में करीब १,००० छोटे और मझोले उत्पादकों को अपना काम बंद करना पड़ा है.
इनमे से अधिकांस इलाहाबाद,आगरा, हाथरस ,मथुरा,दिल्ली,कानपुर और पटना के हैं. पिछले साल होली के दौरान बिकने वाले सामानों में भारतीय और चीनी उत्पादों का अनुपात ४अनुपात १ था,जो अब १९ अनुपात १ हो गया है. २० % की वार्षिक दर से बढ़ रहा होली से सम्बंधित उत्पादों का बाजार इस साल १५,००० करोड़ रूपये के आंकड़े को छू चुका है.
पिछले साल ये आंकड़ा १२००० करोड़ रूपये था.गौर करने वाली बात ये है की आंकड़े हमारे पक्ष में हैं,लेकिन हम इसका फायदा नहीं उठा पा रहे हैं. दुसरे त्योहारों की तरह होली में भी बाजार चीन में भी बनी पिचकारियों से पता पड़ा है. चीन में बने रंगों और पिचकारियों की भरमार के कारण कई छोटी और मझोली भारतीय कंपनियों का व्यवसाय काफी कम हो गया है.
सर्वे के नतीजे ये भी बताते हैं की इसके चलते ८ से १० लाख आँस्कालिक और पूर्णकालिक कामगार अपनी आजीविका खो चुके हैं. इस केटेगरी के लोग बैंकों से लिया गया क़र्ज़ भी नहीं चुका पा रहे. हालाँकि इसकी वास्तविक संख्या के बारे में सर्वे कुछ नहीं बताया गया है. भारत में बनने वाली पिचकारियों में न तो नयापन होता है और न ही उनकी फिनिशिंग पर कोई ध्यान दिया जाता है. बच्चे चीन में बनी पिचकारियों की ओर आकर्षित होते हैं,जबकि भारतीय पिचकारियों की मांग काफी कम है.
होली का पर्याय मानी जाने वाली गुंझियों की भी आयातित प्रजातियां मुंबई जैसे शहरों में पहुँच चुकी हैं. गेंहू के आटे से बनने वाली साधारण गुंझियां अब चॉकलेट-कोटिड और काजू की बनी गुंझियां में तब्दील हो चुकी हैं. ऑरेंज फ्लेवर वाली गुंझियां सबसे पहले नागपुर में बनायी गयी थी और यह आयातित उत्पादों की चुनौती से दूर है. हालत ये हो गयी है कि अलग अलग आकार क़ी परम्परागत,लेकिन आयातित गुंझियां का स्वाद लिए बिना होली अधूरी सी लगने लगती है.
इसके चलते हमें आर्थिक नुक्सान तो उठाना पड़ रहा है,कई परिवारों को अपनी आजीविका से हाथ धोना पड़ रहा है. मुश्किल परिश्थितियों के दौरान नै शुऱुआतों के द्वारा व्यवसाय को टिकाऊ बनाये रखना अर्थव्यस्था के लिए जरूरी है.