हे वत्स ! सब नेताओं की नीति एक है। भले ही इनकी पार्टी अलग-अलग है। भले ही इनके झंडे अलग-अलग हैं। भले ही इनकी टोपियां अलग-अलग हैं। भले ही इनके चुनाव चिन्ह भी अलग हैं। तू इनका झंडा, इनकी टोपी, इनका चिन्ह और इनके नाना प्रकार के रंग देखकर भ्रमित मत हो। ये मन कर्म और वचन से एक ही हैं। तू इन्हें बुद्धि और व्यवहार से भी एक ही जान। इनके ये नाना रूप तो सिर्फ माया हैं। इन सभी रूपों के पीछे छुपे उस असली रूप को पहचान। ये बिना खेले खेलते हैं। बिना खाए खाते हैं। ये बिना किए करते हैं और बिना काम कमाते हैं। इनकी महिमा अपार है। ये जो कहते हैं उसे डेफिनेटली नहीं करते और जो करते हैं उसे छुपाए छुपाए फिरते हैं। अपनी कीर्ति के मोह में कोई नेता ही इनके किए कराए को खोलता है।
हे वत्स ! इनके मुहं में राम और बगल में रिश्वत है। जुबान पर नीति उपदेश और हथेली पर कमीशन है। जिस तरह चकोर को चांद, मोर को सावन की घटाएं, बिल्ली को दूध और सूअर को कीचड़ प्रिय है, ठीक उसी प्रकार इन्हें घूस से प्रेम है।
जिनका परिवार होता है, उनका सिर्फ परिवार खाता है। मगर जिनका परिवार नहीं होता उनके तो इतने छुपे परिवार होते हैं कि उनके नाम से खाने वालों की गिनती कर पाना मुश्किल होता है। उनके सखा और सखियां। सखा और सखियों के परिवार। उनके रिश्तेदार। रिश्तेदारों के रिश्तेदार। सब खाते हैं। इन सबको खाने से भला कौन रोक सकता है।
इसलिए बिना परिवार वाले नेता विवश होते हैं। उन्हें जनता पर ज्यादा टैक्स लगाने पड़ते हैं। उनके साथ खाने वालों की फौज बड़ी होती है। दूसरी ओर परिवार वाले नेता का सिर्फ परिवार खाता है। वह नेता के सखा और सखियों को नहीं खाने देता। उनके रिश्तेदारों को तो फटकने भी नहीं देता।
हे वत्स ! ये जो खा रहे हैं तो इन्हें खाते हुए देख। इनके प्रशंसा गीत गा। इनकी ओर अंगुली मत कर। तू अगर इनकी ओर अंगुली दिखाएगा तो राष्ट्रद्रोही कहलाएगा। नेता का क्या है, वह तो फिर यही नारा लगाएगा- न, मैं खाऊंगा। न, मैं खाने दूंगा।
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