गर्मी की अब आयी बिदाई,वर्षा ऋतु सभी को भायी।वर्षा-काल मेघ नभ छाए,गरजत-बरसत बहुत सुहाए।बरस रहे हैं रिमझिम-रिमझिम,तृप्त हुआ अब तन और मन।आसमान में घना अँधेरा,मेघों ने डाला है डेरा।बरस चुके अब छटा अँधेरा,
कुआँ बावड़ी सूखे सब हैं,तालाबों का नाम नहीं,नदियाँ बन गयीं नाले देखो,पानी का है नाम नहीं।हैंडपंप में नहीं है पानी,बूँद-बूँद को तरसे प्राणी,बेदम हो गए जंगल देखो,हरियाली का नाम नहीं।कहीं हैं नदियाँ उफनी
बारिश हो रही है ऐसे सावन की छटा हो जैसे। बारिश की ये बूंदे ऐसी छोटी छोटी मोती जैसी। थमक-थमक कर बरश रही है कृषक की हृदय धरक रहा है। फसलो की हुई बर्बादी तेज पवन संग आयी बारिश। बिन मौसम हुई बरसात
बरखा की सुहानी रुत मेंमेघों की बात न हो, उनकी प्रिय सखी दमयन्ती की बात न हो, प्रकृति के कण को मेंव्याप्त मादकता की बात न हो - ऐसा तो सम्भव ही नहीं... निश्चित रूप से कोई योगी याकोई विरह वियोगी ही होगा जो इस सबकी मादकता से अछूता रह जाएगा... तो प्रस्तुत हैहमारी आज की रचना "मेघ इठलाए रहे हैं"... सुनने क
पावस*पावस बूंँदों से हुई,शीतल धरती आज।चंचल चपला दामिनी,मेघों का है राज।*मानसून*मानसून ने कर दिया,जग जीवन खुशहाल।कृषक खेत में झूमता,बदला उसका काल।*वारिद*नभ में वारिद छा गए,देख नाचते मोर।विरहिन के नयना झरे,देख घटा घनघोर।*पछुआ*पछुआ ले बादल उड़ी,देख टूटती आस।हलधर बैठा खेत में,होता बड़ा निराश।*कृषक*ऋण के
बहुतो ने गवयी अपनी जान कोआपकी राह देखतेआजा अबतो बरसआपके न आने सेधरती ओर जिंदगीबंजर सी हो गई हैआजा अबतो बरसआपकी बेरुखी नेकितनो की उल्झन बढाईअपनो से बिछडकेकितनो ने मिटा दिया अपने आपकोआजा अबतो बरस जबतक देखेंगे नलहरते खेत को धरती परन सुकून मिलेगा उनको जन्नत मे भीआजा अबतो बरसबहुतो का उजडा है चमनअबके