रात के अँधेरे में ,
शंटिंग ट्रेनों के खेमे में
विधवाओं सी सजी संवरी उन्मुक्त नव यौवनाये
फटे ढोलों की थाप पर
विदाई के कुछ गीत गा रही थी,
लगता था जैसे
किसी के मौत का मातम मना रहीं थी |
थके राही, हताश कुलियों का मंजर
यह सब निहार रहा था
इस गुप्त अँधेरे में ,
गाड़ी के ठसाठस भरे डब्बे में
सीमा पर लड़ने
गुमनाम लोगों का कारवां जा रहा था |
जंग में जाकर , कितने मारेंगे ,कितने मर जाएंगे
कहना मुश्किल है, कितने वापस आ पाएंगे ,
ना होगी कोई भीड़ , ना ही होगा कोई स्वागत,
गुमनाम अँधेरे से लौटे जंगी की जाने क्या होगी हालत |