विश्व विद्वत् समाज एवं विश्व सरकारों को खुली चुनौती
================================
आज विश्व की समस्त सरकारें परेशान हैं जनसंख्या से ! बेकारी और बेरोजगारी से हर तरह भी कमियों एवं भूखमरी तथा नित्य बढ़ते हुये अपराधों से तो मैं, परमात्मा-परमेश्वर खुदा-गॉड-भगवान् या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामर्थ्यवान का यथार्थत: साक्षात्कार एवं दरश-परश तथा सुस्पष्टत: पहचान कराने वाले सन्त ज्ञान ेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस यह चुनौतीपूर्ण उद्धोषणा कर रहा हूँ- कि मुझे कुर्सी नहीं चाहिये । मुझे कोई पद नहीं चाहिये । मुझे कोई मान-सम्मान नहीं चाहिये, फिर भी मेरा एक ही उद्देश्य है, मेरा एक ही लक्ष्य है जिसके लिये 'मैं' धरती पर आया हूँ, जिसके लिये मैं कायम हूँ । दुनिया वालों पछताओगे ! रोओगे ! सिर धुन-धुन कर, लंगोटी पहन-पहन कर, जंगलों और कन्दराओं में ढूंढ़ोंगे, मगर पाओगे नहीं ! शरीर को तपा देना पड़ेगा -- गला देना पड़ेगा फिर भी नहीं मिलूँगा ! सिर पीट-पीट कर रोना पड़ेगा, फिर क्या होगा ? वही कि -- 'का बरषा जब कृषि सुखाने । समय चूक पुनि का पछताने ॥' विश्व वालों ! क्यों परेशान हो जनसंख्या से ! जनसंख्या तुम नहीं बढ़ा रहे हो, बल्कि परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान् या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामर्थ्य बढ़ा रहा है । तुम क्यों परेशान हो ? साढ़े छ: अरब क्या, साढ़े छ: खरब भी जनसंख्या हो जाय तब भी कोई परेशानी की बात नहीं । भ्रूण-हत्या एवं गर्भपात की बिल्कुल ही आवश्यकता नहीं । एक भी बेकार नहीं रहेंगे। एक भी बेरोजगार नहीं रहेंगे । दुनिया में एक भी अपराधी नहीं रहेगा । एक भी भूखे नहीं मरेंगे । एक भी भूखे नहीं रहेंगे । दुनिया में एक भी अपराधी नहीं रहेगा । मुकदमें खोजने पर भी नहीं मिलेंगे । अन्तत: विश्व के अन्तर्गत एक भी दुश्मन नहीं रहेगा तथा किसी भी प्रकार की कमी, यहाँ तक कि दु:ख और बिमारी तक नहीं रहेगी । इसका अर्थ यह भी नहीं कि डाक्टर बेकार हो जायेंगे । ये सारी बातें कोरी कल्पना नहीं, कोई स्वप्न नहीं, कोई उपन्यायिक बात नहीं ! ज्योतिषयों एवं भविष्यवक्ताओं की सी बात नहीं अपितु परमब्रम्ह-परमेश्वर या परमात्मा या परमसत्य का खुला निर्देश है, खुला ऐलान है, विश्व-समाज एवं विश्व की सरकारों को खुली चुनौती है। परन्तु शर्त यह है -- सभी के लिये एक ही जादू है, सभी उपर्युक्त बिमारियों की एक ही औषधि है कि वर्तमानगलत एवं भ्रष्ट शिक्षा पद्धति के स्थान पर ''विद्यातत्त्वम् पद्धति'' को जितना शीघ्र हो सके, उतना ही शीघ्र अर्थात् शीघ्रातिशीघ्र लागू किया जाय और लागू ही नहीं अनिवार्यत: रूप में प्रभावी स्तर पर इसे तुरन्त लागू कराया जाय । लागू होने के दस वर्ष के अन्तर्गत साठ से पचहत्तर प्रतिशत तक तथा पन्द्रह वर्ष में शतप्रतिशत लागू और कथित परिणाम न दे दे, तो मैं सहर्ष विश्व-मन्च के समक्ष हर कष्टों के साथ अन्तिम दण्ड तक को स्वीकार करने का 'बचन' -- 'सत्य बचन' देता हूँ ।
---------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस