परमेश्वर ने जब इस संसार की रचना की तो उसने सत्य भी बनाया और असत्य भी बनाया, प्रकाश भी बनाया और अंधकार भी बनाया, मृत्यु भी बनाई और अमरता भी बनाई। यह सोचने की जरूरत नहीं है कि परमेश्वर ने अच्छाई के साथ साथ बुराई क्यों बनाई। क्योंकि दुनिया का कोई भी
खेल दो परस्पर विरोधी पक्षों के बिना पूरा नहीं होता, और यह संसार परमेश्वर द्वारा रचा गया एक खेल ही तो है। इस प्रकार इस संसार की रचना द्वैत (दो चीजों) से हुई है। इस द्वैत का ही परिणाम है कि जब मानव की उत्पत्ति हुई तो दानव की उत्पत्ति भी हो गई। वास्तव में जो लोग सत्य और धर्म के रास्ते पर चले उन्हे मानव कहा गया और जो लोग असत्य और अधर्म के रास्ते पर चले उन्हे दानव कहा गया। हालांकि शारीरिक संरचना दोनों की समान ही होती है, परंतु अपने कर्मों के द्वारा ही उन्हे मानव या दानव कहा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि सिर्फ शारीरिक संरचना के आधार पर ही किसी को मानव नहीं कहा जा सकता। मानव तो वह है जो जीवन के हर क्षेत्र में सत्य-धर्म का पालन करते हुये अपने कर्तव्यों को पूरा करता है। अब बात करते हैं मानव अधिकार की, तो इसके लिए पहले यह जानना जरूरी है कि अधिकार होता क्या है ? हम जो भी कर्तव्य-कर्म करते हैं, उसका जो फल बनता है, उसे ही अधिकार कहा जाता है। अर्थात अधिकार का मुख्य आधार कर्तव्य-कर्म ही है। बिना कर्तव्य-कर्म किए अधिकार की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। अब कर्तव्य-कर्म को समझने के लिए सबसे पहले स्वयं को समझना जरूरी है। जब तक आप अपने आपको नहीं जानेंगे कि आप कौन हैं, तब तक यह कैसे पता चलेगा कि आपको करना क्या है या आपका कर्तव्य-कर्म क्या है ? बिना कर्तव्य-कर्म किए केवल अधिकार के लिए चिल्लाना केवल मूर्खता है। वैसे भी तो मानव के हाथ में केवल कर्तव्य-कर्म करना ही तो है, उसका फल देना तो प्रकृति के हाथ में है। तो फिर जो चीज आपके हाथ में है ही नहीं उसके लिए शोर मचाने से अच्छा है कि जो चीज आपके हाथ में है उस पर ध्यान दिया जाए। यानि कर्तव्य-कर्म करने पर ध्यान देने की जरूरत है। आज जिधर देखो उधर सब अधिकार के लिए लड़ते दिखाई देते हैं, कर्तव्य-कर्म पर कोई ध्यान नहीं देता। क्या कभी सुनने में आया है कि किसी ने कर्तव्य-कर्म को लेकर कोई हड़ताल या धरना-प्रदर्शन किया हो ? कर्तव्य-कर्म जरा भी नहीं करना पड़े और अधिकार पूरा मिल जाए, क्या यह सही है ? क्या ऐसे कामचोरों के अधिकारों के लिए लड़ने की जरूरत है ?
‘मानव अधिकार आयोग’, मानवों के अधिकारों की रक्षा के लिए बनी एक ऐसी संस्था है जिसे मानव की परिभाषा ही नहीं मालूम, मानव और दानव में फर्क ही नहीं मालूम। यह आयोग तो केवल दो हाथ और दो पैर वाली शारीरिक संरचना को ही मानव समझता है। इससे पूछा जाए कि अगर यह शारीरिक संरचना ही मानव है तो फिर दानव क्या है? वास्तव में मानव या दानव होना कर्मों पर निर्भर करता है न कि शारीरिक संरचना पर। अगर कहीं पर किसी अपराधी, शैतान या दानव को पकड़कर दंडित किया जाता है तो ये मानव अधिकार आयोग वाले झट से मानव अधिकारों की दुहाई देने लगते हैं। मैं पूछता हूँ कि यह मानव अधिकार आयोग मानवों के लिए है या दानवों के लिए ? अगर किसी आतंकवादी को पकड़कर दंडित किया जाता है तो ये मानव अधिकार वाले तुरन्त चिल्लाने लगते हैं- रहम, रहम। अरे दानव के साथ कैसा रहम ? वह तो कठोर सजा का अधिकारी है न कि रहम का ताकि दुबारा फिर कभी कोई दानव समाज में पैदा ही न हो। सच्चाई तो यह है कि यह लोग मानव क्या होता है यह जानते ही नहीं हैं। जो व्यक्ति स्वयं को नहीं जानता वो अपने कर्तव्यों को भी नहीं जान सकता और जो अपने कर्तव्यों को नहीं जानता, उसके लिए कैसा अधिकार ? ऐसा व्यक्ति तो मानव कहलाने के योग्य ही नहीं है। इसलिए मानव अधिकार आयोग को भी चाहिए कि वह सिर्फ मानवों के लिए काम करे दानवों के लिए नहीं।