शिक्षा (EDUCATION) शिक्षा पध्दति
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! शिक्षा प्रणाली आज की इतनी गिरी हुई एवं ऊल-जलूल है कि आज शिक्षा क्या दी जानी चाहिए ? और शिक्षा क्या दी जा रही है यह तो ऐसा लग रहा है कि शिक्षार्थी तो शिक्षार्थी ही है, यदि शिक्षक महानुभावों से भी पूछा जाय, तो वे महानुभाव भी पूरब के वजाय पश्चिम और उत्तर के वजाय दक्षिण की बात बताने-जनाने लगेंगे। इसमें उनका भी दोष कैसे दिया जाय, क्योंकि जो जैसे पढ़ेगे-जानेंगे, वे वैसे ही तो पढ़ायेंगे-जनायेंगे भी । इसमें उनका दोष देना भी व्यर्थ की बात दिखलाई देती है । दोष तो इस शिक्षा पध्दति के लागू करने-कराने वाली व्यवस्था रूप सरकार को ही देना चाहिए । परन्तु वह भी तो इसी शिक्षा से गुजरे हुये व यही शिक्षा पाये हुये लोगों से बनी एक व्यवस्था है । यह बात भी सही ही है कि शिक्षा प्रणाली ही दोषपूर्ण है । यह आभाष तो प्राय: सभी को ही हो रहा है । प्राय: सभी अपने-अपने क्षमता भर आवाज भी उठा रहे है। सभी यह कहते हुये सुनाई दे रहे हैं कि शिक्षा का आमूल परिवर्तन होना चाहिए परन्तु वर्तमान शिक्षा को समाप्त कर दिया जाय क्योंकि वर्तमान शिक्षा पध्दति वही (आसुरी) कामिनी-कांचन प्रधान है जिसे हिरण्य कश्यप (पिता) के सभी प्रयासों के बावजूद भी प्रहलाद ने नहीं पढ़ा था तो उसके स्थान पर नई कौन सी अथवा कैसी शिक्षा पध्दति हो या होना चाहिए, यह बात या सिध्दान्त या फार्मूला कोई नहीं दे रहा है कि शिक्षा में यह बात या यह विधि-विधान या ऐसी प्रणाली लागू किया जाय । इसी समस्या के समाधान में निम्नलिखित 'शिक्षा पध्दति' प्रस्तुत किया जा रहा है । 'शिक्षा' पूर्णत: ब्रम्हाण्डीय विधि-विधान पर ही आधारित हो भगवत् कृपा विशेष से प्राप्त सदानन्द का 'मत' तो यह है कि-- ''शिक्षा पिण्ड और ब्रम्हाण्ड में आपसी ताल-मेल बनाये रखने वाली होनी चाहिए !'' वास्तव में जब तक पिण्ड और ब्रम्हाण्ड के तुलनात्मक अध्ययन के साथ उसमें आपस में तालमेल बनाये रखने हेतु पृथक्-पृथक् पिण्ड और ब्रम्हाण्ड की यथार्थत: प्रायौगिक और व्यावहारिक जानकारी तथा ब्रम्हाण्डीय विधान मात्र ही पिण्ड का भी विधि-विधान यानी स्थायी एवं निश्चयात्मक विधि-विधान ही नहीं होगा तथा एक मात्र ब्रम्हाण्डीय विधि-विधान को अध्ययन पध्दति या शिक्षा प्रणाली के रूप में लागू नहीं किया जायेगा, तब तक अभाव एवं अव्यवस्था दूर नहीं किया जा सकता है, कदापि दूर हो ही नहीं सकता । 'यह भगवद् वाणी ही है !' सियार की तरह से हुऑं-हुऑं-हुऑं तथा कुत्तों की तरह से भौं-भौं-भौं से काम धाम नहीं चलने को है। अभाव एवं अव्यवस्था तब तक दूर नहीं हो सकती । जब तक कि ब्रम्हाण्डीय विधि-विधान को ही पिण्डीय विधि-विधान रूप में शिक्षा विधान को स्वीकार नहीं कर लिया जायेगा । 'शिक्षा को ब्रम्हाण्डीय विधि-विधान अपनाना ही होगा, चाहे जैसे भी हो।' सब भगवत् कृपा पर आधारित । सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! यहाँ पर चारों क्षेत्रों में अपने-अपने क्षेत्र में सफल जीवन हेतु अपनी-अपनी जानकारी से सम्बन्धित तय या निश्चित किये हुये विधान के अनुसार ही रहना-चलना चाहिए । शारीरिक और सांसारिक विषय-वस्तुओं को सही-सही समझने हेतु सही जानकारी आवश्यक होता है और सही जानकारी के लिए, सांसारिक जानकारी व पहचान के लिए, शिक्षित होना पड़ेगा। यहाँ 'शिक्षित' शब्द से मतलब है शैक्षिक दृष्टि से युक्त होना । अपनी स्थूल दृष्टि के बावजूद भी शिक्षा भी एक दृष्टि ही होती है, जो एक प्रकार से शारीरिक ऑंख के साथ ही साथ शिक्षा दृष्टि भी कायम हो जाती है, जिससे पत्र-पत्रिकाओं, ग्रन्थ-सद्ग्रन्थ आदि के माध्यम से एक जानकारी मिलती है, जो भविष्य-जीवन हेतु उत्प्रेरण एवं पथ प्रदर्शन का कार्य करती है । नाम और रूप अब यहाँ पर यह जाना-देखा जायेगा कि हर क्षेत्र में ही लक्ष्य कार्य हेतु जानकारी मुख्यत: दो माध्यमों से होता है । वे हैं-- 'नाम' और 'रूप'। नाम को शब्द के माधयम से कह-सुनकर तथा रूप को देखकर ही जान-पहचान की प्रक्रिया पूरी होती है । संसार में चाहे जितने भी विषय-वस्तु है, सभी 'नाम-रूप' दोनों से ही अवश्य ही युक्त होते हैं । हालांकि स्पर्श, स्वाद और गन्ध भी जानने-पहचानने में सहयोगी होता हैं, परन्तु मुख्यत: 'नाम-रूप' ही होता है । मगर एक बात याद रहे कि कोई भी भौतिक विधान खुदा-गॉड-भगवान् और भगवद् विधान पर लागू नहीं हो सकता । सांसारिकता के समान ही शारीरिक जानकारी व परिचय-पहचान भी 'नाम-रूप' से ही होता है । कोई ऐसा सांसारिक प्राणी नहीं होगा, जो 'नाम-रूप' से रहित हो। यही कारण है कि जान-पहचान 'नाम-रूप' मुख्यत: दो के माध्यम से ही होता है । जिस प्रकार शरीर का 'नाम-रूप' होता है । वास्तव में उसी प्रकार जीव का भी इससे पृथक् अपना 'नाम-रूप' होता है । नाम से जानकारी मिलता है तथा रूप से पहचान प्राप्त होता है। जीव को जानने और पहचानने, दोनों से ही युक्त जो विधि-विधान है, वही 'स्वाध्याय' (Self-Realization) है । 'स्वाध्याय' से तात्पर्य 'स्व' के अधययन यानी जानकारी व पहचान से है। इसमें श्रवण, मनन-चिन्तन और निदिध्यासन की क्रिया प्रमुखतया आती या होती है । निदिध्यासन के अन्तर्गत जीव शरीर से बाहर निकल कर क्रियाशील रूप में स्पष्टत: दिखलाई देता है। निदिध्यासन के वगैर अन्य किसी भी पध्दति से जीव का स्पष्टत: दर्शन सम्भव नहीं है । हालाँकि सूक्ष्म दृष्टि के माध्यम से स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर रूप जीव दोनों को अर्थात् दोनों की जानकारी को पकड़ा जाता है। जब भी हमको शरीर से पृथक् सूक्ष्म शरीर रूप जीव का दर्शन होगा, तो अपने को दिखलाई देगा कि हम निदिध्यासन के अन्तर्गत ही हैं और स्वाधयाय से ही हम जीव भाव या 'स्व' रूपमय स्थित भी रह सकते हैं । इसमें इन्द्रियॉ सहायक नहीं होती हैं। इन्द्रियाँ तो पाँच ज्ञान यानी जानकारी करने-कराने वाली तथा पाँच कर्म यानी जानकारी के अनुसार कार्य करने वाली प्राय: प्रत्येक मानव को ही प्राप्त होती हैं । सारी सृष्टि ही पाँच पदार्थ-तत्वों से बनी है जो क्रमश: आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल नाम से जानी जाती हैं । चूँकि सृष्टि की प्राय: सभी जड़वत् वस्तुएँ इन्हीं पाँच पदार्थ तत्वों से बनी हुई हैं तो जिसमें जिस पदार्थ तत्व की प्रधानता होती है, उसे उसी विभाग के माध्यम से अच्छी जानकारी और पहचान मिलती है । किसी दूसरे पदार्थ तत्त्व प्रधान को दुसरे विभाग से अच्छी या ठोस व सही-सही जानकारी व पहचान नहीं मिल सकती है । वे पाँच विभाग पाँचों पदार्थ तत्वों के आधार पर ही बने हैं, जो अपने विधान के अनुसार समान रूप से आदि सृष्टि से ही गतिशील होते आ रहे हैं ।
तत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस