किसी समय में एक राजा हुआ करता था। एक दिन उस राजा के दिमाग में आया की एक योग्य गुरु की तलाश किया जाए। राजा ने राज्य में घोषणा करवा दिया की, जिसका भी आश्रम सबसे बड़ा होगा, राजा उसे अपना गुरु स्वीकार कर लेगा।
फ़ीर क्या था घोषणा सभी तरफ आग की तरह फ़ैल गयी और देखते ही देखते अनेक सन्देश आने लगे की मेरा आश्रम बड़ा है मेरा आश्रम बड़ा है। और अगले दिन सभी अपने-अपने आश्रम का नक्शा लेकर राजमहल राजा के पास पहुंच गए।
सभी ने राजा के सामने अपनी प्रस्ताव रखी, राजा भी एक-एक करके सबकी बात सुनता गया। फीर अंत में एक तेजस्वी साधु बाबा की बारी आयी।
राजा ने उस तेजस्वी बाबा से पूछा की आपने तो बताया ही नहीं की आपका आश्रम कितना बड़ा है।
सन्यासी बाबा ने कहा- राजन, मै यहाँ पर कुछ नहीं बताऊंगा। आप मेरे साथ स्वयं जंगल चल सकते हैं, वहां मै आपको मेरा आश्रम दिखा दूंगा।
राजा साधु की बात पर राजी हो गया, और जंगल जाने को तैयार हो गया। फ़ीर राजा और साधु जंगल पहुचें, जंगल पहुंच कर साधु एक वृक्ष के नीचे आसन बिछा कर बैठ गया। राजा ने सवाल किया की सन्यासी महाराज कहाँ है आपका आश्रम।
साधु बाबा ने कहा – हे राजन, ऊपर आकाश, नीचे धरती और बीच में ये सारा संसार, यही है मेरा आश्रम। अगर आपके पास कोई मापने का वस्तु या यंत्र हो तो माप लो की मेरा आश्रम कितना बड़ा है।
राजा ने इस बात को सुनकर तुरंत उस तपस्वी बाबा को अपना गुरु मान लिया।
मित्रों" चाहे सीमा धर्म की हो या आश्रम की हो। जो सीमा में बंध जाता है, उसकी सोंच और दृश्टिकोण भी एक सीमा तक सिमित हो जाती है। हमें ये जानना बहुत जरुरी है की हमारी ज्ञान और बुद्धि की सीमा सिमित नहीं होनी चाहिए। इसमें असीमितता की बात होनी चाहिए, हमेसा अपनी सोंच को उच्च और साफ सुथरा रखें।