जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु है मैं नाहिं। प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समांही।। अर्थ :- जब अहंकार रूपी मैं मेरे अन्दर समाया हुआ था तब मुझे गुरु नहीं मिले थे, अब गुरु मिल गये और उनका प्रेम
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान । भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि यह जो शरीर है वो विष जहर से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान हैं। अगर अपना शीशसर देने क
ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये | औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए || अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि इंसान को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को बहुत अच्छी लगे। ऐसी भाषा दूसरे लोगों को तो सुख प
माँ से ही जीवन मिला, और मिला शुभ नाम।माँ के आशीर्वाद से, बनते बिगड़े काम।।माँ तो पावन प्रीति है , माँ शीतल जल धार।माँ के आँचल में छिपा, ममता प्यार दुलार।अभिनव मिश्र अदम्य
🌹दोहा🌹 """"""""कुटुम्ब🏚"""""""""""""रहते सभी कुटुम्ब में , करते बेहद प्यार ।साथ-साथ होते सभी , बनता इक परिवार ।।ध्वजा 🇳🇪"""""""""""""*लहराएँ यश की ध्वजा,* पकड़े अपने हाथ।*उसी धर्मी पुरुष का,* होता ऊँचा माथ।।मिलन 💏""""""""""""" मधुर मिलन की गाइये,
दोहा :- दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं। जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के नाहिं॥अर्थ :- रहीम कहते हैं कि कौआ और कोयल का रंग एक समान कला होता हैं. जिस कारण जब तक उनकी आवाज़ सुनाई न दे दोनों में भेद कर पाना बेहद कठिन है परन्तु जब बसंत ऋतु आती है तो कोयल की मधुर आवाज़ से दोनों में का अंतर स्प
“दोहे” प्रथम पूज्य गणेश हैं, नंदन शिवा महेश आसन आय विराजिए, भागे दुख व क्लेश॥-1 दोहा ऐसी है विधा, रचे छंद अरु सार तेरह ग्यारह पर यति, स्वर सुधा अनुसार॥-2 मानव तेरा हो भला, मानवता की राह कभी न दानव संग हो, करे न मन गुमराह॥-3 पर्यावरण स
“दोहे” गेहूं की ये बालियाँ, झुकती अपने आप रे चिंगारी चेतना, अन्न जले बहु पाप॥-1 अपना पेट भरण किए, येन केन प्रकरेन अगल बगल तक ले तनिक, भूखे कितने नैन॥-2 ज्वाला उठी लपट बढ़ी, धधक उठी है आग तेरे घर इक चिंगारी, भाग सके तो भाग॥-3 खुशियों का खलिहान हैं, नाचें गाएँ लोग सोने की डफली बजी, करतल ध
दोहेमोल तोलकर बोलिये, वचन के न हो पाँव !कोइ कथन बने औषधि, कोइ दे घने घाव !!………..(१)दोस्त ऐसा खोजिये, बुरे समय हो साथ !सुख में तो बहुरे मिले, संकट न आवे पास !!……..(२)संगती ऐसी राखिये, जित मिले सुविचार !झूठा सारा जग भया, सुसंगत तारे पार !! ………(३)विद्या मन से पाइये,
“दोहे” कैसे तुझे जतन करूँ, पुष्प पराग नहाय अपने पथ नवयौवना, महक बसंत बुलाय॥-1 रंग,रंग पर चढ़ गया, दिखे न दूजा रंग अंग अंग रंगीनियाँ, फरकत अंग प्रत्यंग॥-2 ऋतु बहार ले आ गई, पड़त न सीधे पाँव कदली इतराती रही, बैठे पुलकित छाँव॥-3 महुआ कुच दिखने लगे, बौर गए हैं आम
“दोहे” माँ माँ कहते सीखता, बच्चा ज्ञान अपार माँ की अंगुली पावनी, बचपन का आधार॥-1 आँचल माँ का सर्वदा, छाया दे लीलार ममता माँ की सादगी, पोषक उच्च बिचार॥-2 माँ बिन सूना सा लगे, हर रिश्तों का प्यार थपकी में उल्लासिता, गुस्सा करे दुलार॥-3 करुणा की देवी जयी, च
मोबाइल का प्रचलन बढ़ा,जबसे चारों ओरसुबह-शाम बस बातों में,रहता सबका जोर।बैटरी ख़त्म को हो होती,प्राण कंठ को आते मिल जाए खाली सॉकेट,चेहरे हैं खिल जाते।कहना ना कहना सब,जोर-जोर चिल्लानामोटरसायकल,कार चलाते भाता बड़ा बतियाना।अब जब से स्मार्टफोन,घर-घर है जा पहुंचाफेसबुक,ट्विटर ही लगता,सबको अपना बच्चा।सुबह-स