अरे सर, रुटना रुटना (रुकना रुकना)...अविनाश दौड़ता-चिल्लाता आया।
-क्या हुआ? मैं पीछे देख कर चौंका।
-सर, टन्सेसन मिलेडा।
-अरे कन्सेशन ऐसे नहीं मिलता। मैंने लापरवाही से कहा।
-तो टेसे मिलटा है?
-उसके लिए प्रिंसिपल को सिगनेचर करने पड़ते हैं। मैंने समझाया।
-तो टर दो, आप ही तो हो।
-अरे बेटा, उस पर स्कूल की सील लगानी पड़ती है। मैं बोला।
-तो लडाडो न सर।
-सील यहाँ नहीं लाये। मैंने बताया।
-ट्यों नहीं लाये?
-चुप ! अब मुझे गुस्सा आ गया था।
-तो ठरीदो सबटे फुल टिटट ... अविनाश अब धीरे से बुदबुदा कर चुपचाप पीछे खड़ा हो गया।
मैं 'ज़ू' के मुख्यद्वार के पास बने बुकिंग कार्यालय की खिड़की पर जाकर स्कूली बच्चों के लिए टिकट लेने लगा। तब तक दो-दो, चार-चार के झुण्ड में बाकी बच्चे भी आकर इकट्ठे होने लगे थे। चिड़ियों की तरह उनकी चहचहाने की आवाज़ें गूँज रही थीं। ये सभी शहर के एक नामी पब्लिक स्कूल के नौ से बारह वर्ष की आयु के बच्चे थे जिन्हें दो-तीन अध्यापकों के साथ रविवार के दिन शहर का चिड़ियाघर दिखाने के लिए पिकनिक पर लाया गया था। बच्चों में लड़के और लड़कियां दोनों थे, जो स्कूल बस से उतरने के बाद अपनी-अपनी मित्र-मण्डली में बंटे अध्यापकों के पीछे-पीछे आ रहे थे।
अविनाश विद्यालय का होनहार-समझदार बच्चा था, किन्तु तुतलाकर बोलने की आदत के कारण साथी लड़के उसका खूब मज़ाक बनाया करते थे। यही कारण था कि वह साथियों से कटता था और ज्यादा समय या तो अकेला रहता था या फिर लड़कियों के साथ। मजे की बात यह, कि लड़कियां उसे पसंद करती थीं और अपने साथ उसे रख कर खुश होती थीं क्योंकि एक तो वह बहुत सहयोगी भावना वाला था, दूसरे बुद्धिमान होने से उनका सलाहकार भी बना रहता था।
यों वह उम्र में बारह से कुछ ज्यादा ही रहा होगा। अविनाश ने ही खुद आगे बढ़कर विद्यार्थियों को वहां कन्सेशन मिलने की बात बताई थी।
स्कूल के प्रिंसिपल के छुट्टी पर होने के कारण मैं कार्यवाहक के रूप में उनका काम देख रहा था, इसलिए रविवार को बच्चों के साथ यहाँ भी चला आया था। मुझे पता था कि बारह वर्ष तक के बच्चों का वहां आधा टिकट ही लगा करता था, इसलिए विद्यालय स्तर पर कन्सेशन की व्यवस्था की कोई ज़रूरत वैसे भी नहीं थी। पिछले दिनों शहर के कुछ स्कूलों में छेड़छाड़ व दुष्कर्म की घटनाएँ अख़बारों में उछल जाने से मैं अपनी जिम्मेदारी अधिक मानकर बच्चों के साथ चला आया था।
मैं कुछ ही दिन के लिए नया-नया प्रिंसिपल बना था इसलिए मैंने सचेत रहने की कोशिश की। कहते हैं न कि नया मुल्ला कुछ ज्यादा ही अल्लाह-अल्लाह करता है।
टिकट लेने के बाद बच्चे अपने-अपने झुण्ड में जानवरों को देखने में मशगूल हो गए।
हाथी , जिराफ़,ऊँट,शुतुरमुर्ग, दरियाई घोड़ा, बारहसिंघा, गेंडा , घोड़ा , जंगली भैंसा, ज़ेबरा, शेर, बाघ, रीछ,लकड़बग्घा .....एक न ख़त्म होने वाला सिलसिला था।
बच्चे अपने-अपने तरीके से निसर्ग-प्राणियों के बंदी जीवन का आनंद ले रहे थे। लड़कों की रूचि जहाँ चिम्पांजी की उछलकूद और भालू की शरारतों में थी, वहीँ लड़कियां हरिणों के सौंदर्य और रंग-बिरंगे पंछियों की कलाबाजियों में डूबी थीं।
अविनाश या तो अकेला होता या फिर लड़कियों की जिज्ञासा को शांत करता, उनको नई-नई जानकारी देता, उनके झुण्ड में दिखाई देता। दूसरे दोनों अध्यापक, जिनमें एक महिला थी,अपनी बातों में मगन पीछे-पीछे चले आ रहे थे। किताबों से दूर एक दिन की तफ़रीह मानो उन्हें भी सुहा रही थी।
मुझ पर आनंद लेने से अधिक, बच्चों का दायित्वपूर्ण अभिभावक होने का नशा तारी था। इसलिए मैं पशुओं से अधिक बच्चों के कार्यकलाप और उनकी बातों पर भी सतर्कता से नज़र रखे चल रहा था।
मेरी वरिष्ठता दोनों अध्यापकों को भी जैसे मुझसे दूर-दूर रखे हुए थी। जब पिंजरों के बीच दूरी अधिक होने पर बच्चे गलियारों और ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते तो उनकी बातें भी बहती धारा की तरह तेज़ और घुमावदार हो जातीं। हँसी -मज़ाक छींटाकशी बढ़ जाते। आगे बढ़ जाने वाले लोग किसी पेड़ की छाँव में ठहर कर पीछे आने वालों का इंतज़ार करते। तभी आगे कुछ दूरी पर कुछ हलचल सुनाई दी।
एक बड़े घुमावदार रास्ते के बाद बने पिंजरे के सामने किलकारियां भर-भर के लड़के खुश हो रहे थे। कुछ-एक तो हाथ हिला-हिला कर सीटियां मार रहे थे। पिंजरे के सामने के रास्ते के पार एक पीपल के पेड़ के नीचे कुछ लड़कियां जमा हो गयी थीं।
मैं उस ओर देखता हुआ कुछ बड़े-बड़े डग भरता हुआ बढ़ने लगा। मैंने देखा, लड़कियां पिंजरे के पास नहीं आ रही थीं बल्कि दूर पेड़ के नीचे झुण्ड में खड़ी मुंह फेर कर हंस रही थीं। वे इशारे में एक दूसरी को दिखा कर हँसतीं और उस ओर से मुंह घुमा लेतीं। आखिर ऐसा कौन सा जानवर था जिसे देख कर लड़के इतने प्रफुल्लित हो रहे हैं और लड़कियां शरमाकर इस तरह दूर हट रही हैं?मैंने कदम कुछ और तेज़ कर दिए।
तभी मेरा माथा ठनका ।
-कहीं ऐसा तो नहीं कि पिंजरे में कोई जोड़ा रतिक्रिया कर रहा हो। जानवर में इतनी समझ थोड़े ही होती है कि वह भीड़ और एकांत के बीच फर्क कर सके। मुझे कुत्तों या गाय-बैलों के ऐसे कई सार्वजनिक दृश्य याद थे जब मैंने उनकी ऐसी अवस्था में उन्हें देख कर लड़कों को खुश होते और लड़कियों को मुंह छिपा कर चुपचाप वहां से गुज़रते देखा था।
तो क्या इस अवस्था के छोटे बच्चे भी ऐसे दृश्यों से आनंदित होने लगे? ये क्या होता जा रहा है, मैं सोच में डूबा उस ओर बढ़ा। मेरा आश्चर्य वहां पहुँच कर और भी बढ़ गया, क्योंकि वहां ऐसा कुछ भी नहीं था। वह तो बब्बर शेर का पिंजरा था।
बचपन में सुनी कई कहानियों के आधार पर लड़के जंगल के राजा का इस्तकबाल खुश होकर, सीटियां और किलकारियां भर के कर रहे थे और वह शान से अपने दर्शकों को देखता हुआ इधर से उधर पिंजरे में टहल रहा था।
लड़कों की ख़ुशी जायज़ थी। लेकिन लड़कियों का शरमाना और मुंह छिपा कर हंसना मेरी समझ में बिलकुल नहीं आया। क्या वे शेर से डर रही थीं? क्या जंगल का राजा उन्हें उत्साह-उल्लास से नहीं भर रहा था? आखिर क्या बात थी?
तभी लड़कियों के झुण्ड के बीच से अविनाश की तेज आवाज़ आई- ये बब्बर शेर है, बब्बर शेर ! देठो -देठो ...इस टे बाल ! चारों टरफ़ बाल ही बाल ...बब्बर शेर ...जंडल टा राजा !
बड़े सर को पास आया देख बच्चे संयत हो गए थे। लड़कियां भी झुण्ड से तिरोहित होने लगी थीं।
सभी आगे बढ़ने लगे। बच्चों ने भरपूर आनंद लिया पिकनिक का। शाम गहराने से पहले ही बच्चों को अपने-अपने घर पहुंचा दिया गया।
अगले दिन अवकाश था लेकिन बच्चों की एक्स्ट्रा एक्टिविटीज़ चल रही थीं।
मैं अपने नियमित राउंड पर था। पिछवाड़े के खेल मैदान के किनारे-किनारे चलता हुआ मैं स्वीमिंग पूल की ओर जाने लगा।
विद्यालय का स्वीमिंग पूल तीन शिफ्टों में चलता था।
सुबह छोटे बच्चे आते थे जिनके लिए कॉमन व्यवस्था थी। बारह वर्ष तक की आयु के लड़के-लड़कियां इसमें तैरना सीखते थे।
बाद में दोपहर को लड़के और शाम को लड़कियां आती थीं। ये बड़ी कक्षाओं के लिए निर्धारित समय था।
पूल पर अलग-अलग दो वाशरूम और चेंजरूम बने हुए थे। छोटे बच्चों और लड़कियों का एक वाशरूम था तथा बड़े लड़कों के लिए दूसरा।
मैं कल की सैर के विचारों में खोया धीरे-धीरे चलता हुआ स्वीमिंग पूल की सीढ़ियों तक आ गया। सुबह की बच्चों वाली शिफ्ट चल रही थी। कोच मैडम छोटे बच्चों को तैरना सिखा रही थीं। पिछले दिनों पड़ने वाली गर्मी और उमस के कारण बच्चों को ठन्डे पानी में अठखेलियां करना भा रहा था।
सीढ़ियों पर कदम रखते ही भीतर का कोलाहल सुनाई देने लगा। शायद इस शिफ्ट में बच्चों की संख्या भी कुछ ज्यादा थी जिससे चहल-पहल भी बढ़ गयी थी। तभी तो कमर में ट्यूब बांधकर हाथ-पैर मारते बच्चों को पूरी तरह से जगह भी नहीं मिल पा रही थी। वे एक-दूसरे पर पानी की बौछारें उछालते जीवन के झंझावातों के लिए मानो अपने को तैयार करने की मीठी मुहिम में जुटे थे।
मुझे कोच मैडम की आवाज़ सुनाई दी। वे एक लड़के को इशारे से पानी से बाहर आने को कह रही थीं। गौरव नाम का वह लड़का था तो बच्चों की इसी क्लास का, मगर शायद देर से पढ़ने या फेल हो जाने के कारण अपनी कक्षा के बच्चों से डील-डौल में ज़रा बड़ा लगता था। गौरव अपने माथे पर छितराये भीगे बालों को हाथों से पीछे करता पानी से निकल कर कोच के पास आने लगा। उसके स्वीमिंग कॉस्ट्यूम से पानी की धार अब भी टपक रही थी।
मैडम बोलीं- गौरव, बेटा इस ग्रुप में अब बहुत बच्चे हो गए हैं, तुम कल से दोपहर वाले बैच में आया करो।
गौरव ने मुंह में भरा पानी पिचकारी की शक्ल में ऐसे उछाला जैसे नौसिखुए सिगरेट पीने वाले धुआं एक ओर मुंह करके उड़ाते हैं। फिर धीरे से बोला- जी मैम !
कोच उसके कॉस्ट्यूम की ओर गहराई से देखती हुई झेंप कर रह गयी। सचमुच गौरव का लिंग किसी जवान लड़के की तरह उत्तेजना से खड़ा हो गया था। उसने चुपचाप पास की बेंच पर रखा अपना तौलिया लेकर कंधे पर डाला और धीरे-धीरे वाशरूम की ओर बढ़ गया। उसने कॉस्ट्यूम का नाड़ा खींच कर खोला तो उसके पेट के निचले हिस्से पर काले चमकीले बाल दिखने लगे।
मैं शायद सीढ़ियों की ओर नीचे होने के कारण ऊपर उन लोगों को दिखाई नहीं दिया था लेकिन उनकी आवाज़ मुझ तक साफ-साफ आ रही थी।
बच्चे गौरव को जाते हुए देखते रहे और हंसते रहे, तभी पीछे से पानी के बीच से अविनाश की आवाज़ आई,जो गौरव से कह रहा था- ... तुम अब ठड़े होने वाले वाशरूम में जाना ...टल से.... ठीट है डौरव ? वह बोला- अब तुम बब्बर शेर बन डए हो... बाल आ डए अब !
बच्चों ने देखा गौरव मुस्कराकर पलटा और फिर बब्बर शेर वाली चाल से चलता हुआ शान से भीतर चला गया।
कोच ने मुझे देख लिया था और वे अभिवादन कर मेरी ओर चली आयीं। मैं बच्चों को अठखेलियां करते देख रहा था कि तैरते हुए अविनाश की आवाज़ आई- डुरुजी ....नमस्टार !
मुझे कल शेर के पिंजरे को देख कर लड़कियों के शरमाने और लड़कों के हंसने की घटना याद आ गई । मैं सोच रहा था, हम तो नाम के शिक्षक हैं बाक़ी असली शिक्षिका तो प्रकृति है जो अपने तरीके से ज़िंदगी के सबक हम सबको सिखाती है। मैं प्रिंसिपल होने के नाते बच्चों को डांटना चाहता था पर मैंने सोचा, इससे क्या लाभ? कल संसार इन्हीं को तो चलाना है!
[ समाप्त ]
[ "सुजाता" सितम्बर 2015 अंक में प्रकाशित ]