मेरी और शराफ़त की पहली मुलाकात बेहद नाटकीय तरीक़े से हुई थी। भोपाल तक सोलह घंटे का सफ़र था, बस का। सारी रात बस में निकाल लेने के बावजूद अभी कुल नौ घंटे हुए थे और कम से कम सात घंटे का सफर अभी बाक़ी था।
एक छोटे से कस्बे के बाहरी इलाके में सड़क के किनारे ड्राइवर ने बस रोक दी थी और ऐलान किया था कि यहां एक घंटे ठहरने के बाद बस आगे चलेगी। सड़क के एक किनारे पर एक सुलभ शौचालय बना हुआ था और दूसरी ओर ज़रा आगे जाकर एक बड़ा सा ढाबा और उससे लगी हुई कुछ खुदरा दुकानें, जिनमें ज़्यादातर खाने- पीने की चीजों की ही थीं।
सुबह के लगभग छह बज चुके थे। सभी लोग सुबह के दैनिक कार्यों से निबटने की हड़बड़ी में थे। शौच, कुल्ला, दातुन और फिर कुछ अल्पाहार की हड़बड़ी।
उनमें भी अलग -अलग उम्र, अलग -अलग आदतों के लोग। किसी को चाय पीकर लैट्रीन जाना है तो किसी को लैट्रीन जाकर चाय पीना है। कोई बिना कहीं जाए, बिना कुछ किए खा लेने की उतावली में, तो किसी को अन्न हाथ में लेने से पहले नहा भी लेने का जुनून। किसी को कुछ खाकर दवा लेने की मजबूरी तो किसी को दवा खाकर ही अन्न ग्रहण करने की विवशता।
और सबको बस में रखे सामान और हाथ में उठाए थैलों- बैगों को चोर- उचक्कों से भी बचाने का तनाव!
ऐसे में जो लोग परिवार या मित्रों के साथ थे वे तो चिंता और तनाव रहित हंसी- ठट्टे के साथ चहल- कदमी करते हुए दिख रहे थे पर जो अकेले -अकेले थे, वो कोई सहारा ढूंढ़ कर या अपनी- अपनी बेचैनी ओढ़ कर काम चला रहे थे।
इसी अफ़रा - तफ़री के जंजाल में शराफ़त मुझे मिला।
शौचालय की कतारों में अपनी दाल न गलती देख वो दौड़ कर किसी दुकानदार से एक पुरानी बोतल कबाड़ लाया और उसे पानी से भर कर उसने जब मुझे साथ आने का इशारा किया तो हम दोनों ही एक साथ चंद उन कुछ लोगों के पीछे चल पड़े जो पिछवाड़े के मैदान में ज़रा सी ओट तलाश कर - कर के पाखाने के लिए बैठ गए थे। ज़्यादातर युवक थे। मेरी ये मदद शराफ़त ने इसलिए की थी कि बस की लंबी कतार में उसका टिकिट आगे लगे होने के कारण मैंने उसे लेकर दिया था।
पानी की बोतल साझा होने के कारण शराफ़त ने मेरे सामने ही बिना किसी ओट की जगह चुनी थी और अब हम एक दूसरे के सामने ऐसे दोस्तों की तरह बैठे थे जिनके बीच किसी किस्म का पर्दा न हो। पानी की बोतल दोनों के बीच इतने फासले पर रखी थी कि दोनों का ही हाथ आसानी से पहुंच सके।
उसके इस सहयोग का बदला मैंने ढाबे में उसकी चाय के पैसे देकर चुकाया।
अभी क्योंकि सात - आठ घंटे का सफर बाक़ी था, इसलिए ख़ाली चाय से तो काम चलने वाला नहीं था।
मैं एक ठेले पर से गर्मागर्म पकौड़ों की पेपर- प्लेट लेकर अपनी सीट पर आ बैठा।
कुछ देर में जब शराफ़त भी बस में चढ़ा तो मैंने उसे भी इशारे से पकौड़ों की पेशकश की। उसने मुझे अपने हाथ का दौना दिखाया जिसमें वो दो समोसे लिए हुए था।
इससे पहले कि बस चल पड़ती, शराफ़त ने मेरे पास बैठे सज्जन से बेहद अनुनय भरा अनुरोध करते हुए उन्हें तीन सीट पीछे अपनी खिड़की वाली सीट पर जाने के लिए मना लिया। वो खुशी से मान भी गए।
अब मैं और शराफ़त बस में एक साथ बैठे हुए सहयात्री थे। रास्ते भर उससे बहुत सारी बातें हुईं।
दोपहर को जब मैं अपने घर पहुंचा, तब तक शराफ़त मेरा पता ले चुका था और साथ ही मुझे ये आश्वासन दे चुका था कि वो किसी छुट्टी के दिन मुझसे मिलने घर ज़रूर आयेगा।
मुझे पता चला कि शराफ़त मेरे घर से पांच किलोमीटर दूर एक हेयर कटिंग सैलून में काम करता है और सैलून के ऊपर ही सैलून के मालिक के दिए हुए छोटे से कमरे में रहता है।
बाद में हम दो - तीन बार और मिले।
शराफ़त को जब पता चला कि मैं अकेला रहता हूं तो वह मेरे पास अक्सर आने लगा और मुझसे काफ़ी खुल गया। वह मुझसे कुछ नहीं छिपाता था।
शायद यही कारण है कि मैं आज आपको उसकी कहानी सुना पा रहा हूं।
शराफ़त उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर का रहने वाला दसवीं कक्षा फेल लड़का था जो अपने घर से बिना बताए भागा हुआ था और अब इस सैलून में काम करके गुज़र कर रहा था। उसका असली नाम भी शराफ़त नहीं, बल्कि शाबान था।
अब उसकी आयु लगभग इक्कीस- बाईस साल थी और इस छोटी सी उम्र में ही लगभग दो साल इधर -उधर दर- दर की ठोकरें खाने के बाद अब वो सबसे छिप कर भोपाल में था।
अब उसे शराफ़त कहूं या शाबान, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था, लेकिन इस बात से ज़रूर आपको फर्क पड़ेगा कि शराफ़त अपने शहर से एक हत्या करके पुलिस से भागा हुआ अपराधी था।
एक कातिल की कहानी आपको सुनाने के पीछे सिर्फ़ इतनी सी वजह थी कि शराफ़त एक बहुत प्यारा बच्चा था, जिसे उसकी निर्दोष और मासूम ख़ूबसूरती के कारण ही मैं दिल से चाहने लगा था।
दरअसल इस कहानी का खलनायक उस लड़के की ख़ूबसूरती और उसका प्यारा दिल ही थे।
आप सोचेंगे कि एक युवा लड़के की ख़ूबसूरती खलनायक कैसे हो सकती है। लेकिन पहले उसकी कहानी सुन लीजिए फ़िर बात करेंगे।
स्कूल छोड़ने के बाद शराफ़त अपने शहर में एक हेयर कटिंग सैलून पर ही काम करता था। वो पढ़ लिख तो नहीं सका पर दुकान पर पंद्रह साल की उम्र से ही आते रहने के कारण इस काम में बहुत दक्ष था।
गोरा, सुन्दर और मासूम सा दिखने वाला वो लड़का अपनी दुकान के बाक़ी लड़कों की ईर्ष्या का कारण बनता था जब दुकान में आने वाला हर नियमित ग्राहक उससे ही काम कराना चाहता था।
उसके काम में ग़ज़ब की सफ़ाई और तत्परता थी।
दूसरे लड़के फ़्री होते, पर फ़िर भी ग्राहक शराफ़त से ही काम कराने के लिए उसका इंतजार किया करते।
मालिक भी उससे ख़ुश रहता।
इन्हीं दिनों दुकान पर हेयर कटिंग के लिए सरफराज़ ने आना शुरू किया।
सरफराज़ उसी बाज़ार में एक ट्रांसपोर्ट कम्पनी का दफ़्तर चलाता था। लगभग चालीस साल के उस लंबे चौड़े कद के आदमी के बाल हमेशा मेहंदी से लाल रंगे रहते और करीने से इस तरह संवरे रहते मानो उन पर घंटों मेहनत की गई हो।
ये सब शराफ़त का ही हुनर था।
सरफराज़ कटिंग के लिए आने से पहले अपने दफ़्तर के किसी कुली को भेजता था कि वो शराफ़त को देख कर आए।
जब शराफ़त के वहां होने और ख़ाली भी होने की सूचना सरफराज़ को मिलती, तभी वो अपने पठानी कुर्ते को झटकारता हुआ उठ कर आता और शराफ़त की कुर्सी पर सिर झुका कर बैठ जाता।
शराफ़त की अंगुलियों का बिजली सा कमाल उसके सिर पर थिरकने लग जाता।
शराफ़त जब तक उसका काम करता, सरफराज़ उससे दुनिया जहान की बातें करता रहता।
एक सैलून में किसी ग्राहक का आना एक सामान्य बात है, लेकिन जब सरफराज़ वहां आता तो दुकान के बाक़ी लड़के कनखियों से, नज़र बचा- बचा कर ये देखते थे कि शराफ़त और सरफराज़ में केवल उम्र को छोड़ कर बाकी कितनी समानता है।
ऐसा लगता था कि चालीस की उम्र में शराफ़त ठीक ऐसा ही तो दिखाई देगा। या अपनी उम्र के उन्नीस साल में सरफराज़ बिल्कुल ऐसा ही तो दिखता रहा होगा!
ऐसा लगता था मानो कोई बेटा ही अपने बाप की कटिंग बना रहा हो।
दोनों का गठीला स्वस्थ बदन, दोनों का खिलता गोरा रंग, दोनों के आकर्षक तीखे नैन- नक्श!
शराफ़त के होठ कुदरती लाल, तो सरफराज़ के पान से रंग कर लाल हुए रहते।
और अगर कभी गर्मी या उमस के चलते सरफराज़ अपना कुर्ता उतार कर केवल पायजामा पहने बैठ जाता, तो दुकान के लड़के ये भी भांप लेते कि जैसे गंडे- ताबीज़ शराफ़त के बाजू पर बंधे होते थे, ठीक वैसे ही सरफराज़ की बांह पर भी। शराफ़त के गले और कलाई पर बंधा काला डोरा भी दोनों का एक सा।
जैसे दोनों किसी एक ही पीर- फ़कीर के पास भी मिलकर जाते रहे हों।
सब जानते थे कि सरफराज़ के कोई औलाद नहीं है। वो और उसकी निहायत खूबसूरत बेगम पिछले बीस साल से संतान के लिए तरह - तरह के टोटके और मन्नतें करते हुए भी आस- औलाद के लिए तरसते ही रहे हैं।
कुछ दिन बाद एक नया सिलसिला शुरू हो गया। अब सरफराज़ शराफ़त को अक्सर अपने घर बुलाने लगा। शाम को भी गली में अक्सर दोनों साथ -साथ देखे जाते।
जिस दिन सैलून बंद होता था उस दिन तो शराफ़त पूरा दिन ही सरफराज़ के यहां दिखाई देता।
लोग सोचते, हो न हो, सरफराज़ की ओर से शराफ़त को शायद बेटे के रूप में अपनाने की तैयारी चल रही है। वैसे भी शराफ़त के मां बाप नहीं थे। कोई सगा भाई- बहन भी नहीं। वहां गांव में अपने एक मौसा के घर रहता था।
अगर कोई परिवार उसे बेटे के रूप में अपना लेता तो भला किसी को क्या ऐतराज़ हो सकता था।
दुकान में काम करने वाले शराफ़त के साथी लोग शराफ़त को नए मां- बाप मिल जाने पर छेड़ते, उससे मिठाई मांगते। शराफ़त बस चुप लगा जाता, किसी से कुछ न कहता।
लेकिन तभी एक दिन लोगों ने सुना कि पीर- फकीरों के गंडे ताबीज़ सरफराज़ को फल गए हैं और उसकी बेगम की गोद हरी होने वाली है। सरफराज़ के तो मानो पैर ही ज़मीन पर नहीं पड़ते थे। वो बेहद खुश था।
लेकिन इस खबर से शराफ़त पर जैसे गाज गिरी। वह एकाएक गायब ही हो गया। साथी लोग अब उसका मजाक उड़ाने के लिए उसे ढूंढ़ते, पर वो रातों - रात न जाने कहां गायब हो गया।
सैलून के मालिक तक को शराफ़त की कोई खोजखबर नहीं थी। वह न तो बता कर गया, और न ही अपना हिसाब- किताब करके बकाया पैसे ही लेकर गया।
लोग सोचते, बेचारा ये जिल्लत बर्दाश्त न कर सका होगा कि उसे गोद लेने के इच्छुक मां - बाप ने उनकी अपनी संतान के पैदा होने की मुनादी कर दी। अब कौन पूछता शराफ़त को?
अंधेरे में मुंह छिपा कर बेचारा कहीं चला गया।
* * *
लेकिन नहीं। बात केवल इतनी सी नहीं थी।
शराफ़त ने अपने नसीब की पूरी कहानी जब सुनाई तो मेरा सिर भी चकरा गया। क्या ऐसा भी हो सकता है? नियति एक सीधे- सादे नौ जवान के हाथ की लकीरों में ऐसा गुनाह लिख कर उसे इस तरह कातिल करार दे सकती है कि वो तमाम उम्र अंधेरों में भटकता रहे?
सरफराज़ संतान न होने के कारण बेहद परेशान रहता था। इसी बीच शराफ़त से उसका संपर्क हो गया।
सरफराज़ अपनी बेगम से भी बेपनाह मोहब्बत करता था। वो उसके बिना एक पल भी नहीं रह सकता था।
जबकि सरफराज़ की मां की ख्वाहिश खानदान के वारिस के लिए इस क़दर बढ़ी कि वो लगातार दबाव डाल कर अपने बेटे को दूसरा निकाह कर लेने के लिए उकसा रही थी।
शराफ़त से मिलने के बाद सरफराज़ के दिमाग़ में एक अजीबोग़रीब ख़्याल आया।
उसे लगता था कि अगर उसकी कोई औलाद होती तो वो शक्ल सूरत में बिल्कुल शराफ़त जैसी ही तो होती। शराफ़त इस क़दर अपने नैन नक्श और कद काठी में उससे मिलता जुलता था।
उसने एक दिन भरोसे में लेकर शराफ़त से एक सौदा कर डाला। उसने शराफ़त को खुली छूट देकर उकसाया कि वो उसकी बेगम के साथ हम- बिस्तर हो जाए।
कई दिन ऐसा सिलसिला चला।
और जब सरफराज़ को यक़ीन हो गया कि उसे शराफ़त का बीज मिल गया है, और ये बीज सरफराज़ के खानदान को आगे चलाने में कारगर भी ही गया है, तो उसने शराफ़त को ढेर सारा पैसा देकर रातों रात वो शहर हमेशा के लिए छोड़ देने की सख़्त ताक़ीद कर डाली। उसने शराफ़त से ये कौल भी लेे लिया कि वो अब ज़िन्दगी भर भूल से भी कभी यहां आकर सरफराज़ के परिवार के सामने नहीं पड़ेगा।
शराफ़त रातों रात किसी को कानों कान खबर किए बिना बहुत दूर चला गया। उसका ये ख़्वाब पूरा हो गया था कि उसे अपना ख़ुद का कारोबार जमाने के लिए एक मुश्त बड़ी रकम मिल गई थी।
लेकिन उसके नसीब को इतने भर से ही ठहराव नहीं मिला।
कुछ समय बाद एक दिन उसे किसी तरह खबर मिली कि सरफराज़ के यहां बेटा हुआ है तो वो बेहद भावुक हो गया। उसके दिल ने कहा कि इतनी बड़ी दुनिया में एक अकेली यही नन्हीं सी जान है जिससे उसका खून का रिश्ता है।
उसके दिल में चोर आ गया। वो एक रात अपने खून की केवल एक झलक देखने की साध मन में लिए यंत्रचालित सा इस शहर में चला आया और रात के अंधेरे में चोर की तरह सरफराज़ के घर पहुंच गया।
उसने अपनी तरफ़ से अपना हुलिया बदल कर किसी की भी नज़रों में न आने के लिए पूरा एहतियात बरतने की कोशिश की थी मगर सरफराज़ उसे घर में देखते ही आगबबूला हो उठा।
वह एकाएक अपना आपा खो बैठा और उसने एक तेज़ कटार निकाल ली। वो शराफ़त के ख़ून का प्यासा हो गया।
शराफ़त ने उसे समझाने और तुरंत वापस लौट जाने का लाख भरोसा दिलाया पर सरफराज़ ने उसकी एक न सुनी और उस पर ताबड़तोड़ हमला कर दिया।
छीना झपटी और अपने बचाव की कोशिश में शराफ़त के हाथों सरफराज़ का क़त्ल हो गया।
अपने बेटे और सरफराज़ की बेगम की एक झलक तक देखे बिना शराफ़त को पुलिस के खौफ से वहां से भागना पड़ा।
और उस दिन से वो बेगुनाह, खूबसूरत सा लड़का केवल अंधेरों का जुगनू बन कर रह गया।
शराफ़त तब से कानून से, समाज से, खुद अपने आप से लगातार भाग रहा है।
वो मुझसे मिलने कभी - कभी अब भी आ जाता है। शायद उसे ये यक़ीन है कि एक कलमकार होने के नाते मेरी सोच खुले में रहती है, तंग दायरों में नहीं, मैं उसके हालात को समझ सकूंगा।
शायद उसे मुझमें उसके लिए कोई अजीब सा अपनापन दिखाई देता हो!
और मैं भी कभी- कभी सोचता हूं कि वो आख़िर किसका गुनहगार है जो मैं उसे आने या मुझसे मिलने से रोकूं?
* * *