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2. हज़बां

4 अगस्त 2022

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तेज़ धूप थी। हेलमेट सुहा रहा था। क्या करें, कोई सरकारी नौकरी होती तो अभी आराम से सरकारी बिल पर चलते एसी में उनींदे से बैठे होते। या फ़िर घर का कोई व्यापार ही होता तो तेज़ धूप का बहाना करके फ़ोन से कर्मचारियों को काम समझा कर घर में ही बने रह जाते। 
पर यहां तो घर का एक छोटा सा अख़बार था जिसके लिए सर्दी,गर्मी, बरसात हर मौसम में प्रेस में ही जाकर बैठना पड़ता था। तभी जाकर दाल रोटी निकल पाती थी।
मैं बाइक के पास खड़ा अभी हेलमेट को कस ही रहा था कि सामने से खन्ना साहब की धर्मपत्नी कार से उतर कर पड़ौस में उनके घर जाती दिखीं। दुआ सलाम के बहाने उनके क़रीब पहुंचा तो बोलीं - मिसेज़ मारूति के घर गई थी उन्हें बधाई देने।
- अच्छा, कुछ ख़ास था जो इतनी तेज़ धूप में आप निकलीं?
वो चहकते हुए बोलीं - अरे आपको नहीं मालूम, मारूति साहब की बीवी का अभी महिला दिवस पर बड़ा ज़बरदस्त सम्मान हुआ है! मैं तो फंक्शन में जा नहीं सकी थी, आज जाकर आई, भई बधाई तो बनती है न! बड़ी बात है वरना आजकल की आपाधापी में कौन किसकी तरफ़ ध्यान देता है, करते रहो मेहनत... सबको तो ऐसे सम्मान नहीं न मिलते।
- जी बड़े अच्छे विचार हैं आपके। पर उन्हें ऑनर क्यों मिला? मैंने अचंभे से कहा।
वे तमक कर बोलीं - अरे आपको ये भी नहीं मालूम? आपतो इतने बड़े पत्रकार ठहरे। भई, पत्रकारों के पास तो खबरें पहले आती हैं, पीछे घटती हैं जाकर।
मैं उनकी बात पर हंस नहीं पाया। मज़ाक खूब जानती हैं ये मिसेज खन्ना।
मुझे अब ये समझ में नहीं आ रहा था कि वो सचमुच मेरी नासमझी पर खिन्न थीं या बेबात के इतनी देर धूप में रोक लिए जाने पर। मैंने उनसे विदा ली और बाइक दौड़ा दी।
चलो, मिसेज खन्ना ने बातों - बातों में मेरा काम बना दिया। मैं हमेशा संडे के अख़बार में किसी बड़ी हस्ती का एक इंटरव्यू ही छापा करता था। आज श्रीमती मारूति के घर का ही रुख किया जाए... ये सोचते हुए मैंने बाइक उस तरफ़ मोड़ दी।
श्रीमती मारूति एक कर्मठ जुझारू महिला थीं जो अपने घर के नज़दीक ही एक कैफे चलाती थीं। नए- नए प्रयोगों  और उनकी नवोन्मेषी बुद्धि के कारण उनका कैफे खूब चलता था।
वो कैफे में ही मिल गईं। 
दोपहर का समय होने पर भी उनके रेस्त्रां में काफ़ी लोग मौजूद थे। उनके कर्मचारी दौड़ भाग कर सर्विस में लगे थे और उनके कुक्स भी खासे व्यस्त थे। वो अपने छोटे से केबिन में अपेक्षाकृत कम व्यस्त सी बैठी थीं।
खूब बातें हुईं।
- मैम, कुछ बताइए अपने यहां की स्पेशियलिटीज़ के बारे में। मैंने सुना है आपके यहां की चाय बहुत अच्छी और मशहूर होती है।
वो अपनी चेयर पर पहलू बदल कर बोलीं - हम अदरक को छीलते नहीं!
- वाह! लेकिन क्यों?
- देखिए, ऑफ्टरऑल अदरक एक जड़ी बूटी है। अगर कुदरत को उसका छिलका हटाना ही होता तो वो उसे लगाती ही क्यों? चलो, कुदरत पर तो हमारा कोई बस नहीं, जो भी करे पर एक ज़रा से छिलका हटाने के काम के कारण बंदा दो चाकू रखे? पहले छीले फ़िर काटे!
- ये तो है। मुश्किल तो है।
- नहीं - नहीं आप समझे नहीं। मैंने चौंक कर इधर उधर देखा... आसपास कौन सी ऐसी जटिलता चली आई जो मैं नहीं समझा। मैं सपाट चेहरे से उन्हें देखता रहा।
वो अपनी बात जारी रखते हुए बोलीं - मेरा मतलब है फिर उसे कूटो!
- जी किसे?
- अदरक को? उन्होंने कुछ ज़ोर देकर कहा।
- जी वो तो है।
- नहीं- नहीं आप समझे नहीं... मतलब आदमी किसी फैक्ट्री में काम कर रहा है या चाय बना रहा है? देखो ना! वो बोलीं।
- जाहिर है चाय ही बना रहा है...
- अब आप सोचो, आदमी हथेली से तो कूटेगा नहीं ... तो फिर लोहे की मूसल...
- जी ज़रूरी है।
- तो कितना आयरन जा रहा है अदरक में? तो अब आप सोचो, आदमी चाय बना रहा है कि लोहे की खीर?
- ओह अच्छा। ब्रिलिएंट। ये तो आपका ही इन्नोवेशन है।
वो मुंह से कुछ पसीना सा पौंछती हुई मुस्कराईं।
फिर बोलीं - आप तो जानते ही हो, बच्चे इसीलिए तो पालक नहीं खाते। कितना आयरन होता है उसमें। 
मैं हैरान था उनकी जानकारी पर। साथ ही आश्वस्त भी था कि मेरे लिए जो चाय आई उसमें और चाहे जो भी हो आयरन तो ज्यादा नहीं होगा। 
लौह पुरुष बन कर अख़बार चल भी तो नहीं सकता। लचीला रुख रखना ही पड़ता है। 
उन्होंने इंटरव्यू के साथ लगाने के लिए फ़ोटो चार - पांच एंगल्स से दिए थे। अब मुझे चूज़ करना था कि इंटरव्यू के साथ कौन सा फबेगा।
मैं उनके साथ सेल्फी लेना न भूला। भई पत्रकार को इतना दूरदर्शी तो होना ही पड़ता है। कल यही तस्वीर किसी शपथग्रहण समारोह के बाद सत्ता के दरवाज़े की चाबी बन जाए तो अजूबा नहीं।
इतना सा हक तो हमें भी है आख़िर धूप में घूम - घूम कर काम करते हैं।
मैंने शानदार स्टोरी के बाद उनसे विदा लेने से पहले पूछा - यहां का पूरा मैनेजमेंट आप ही देखती हैं या फिर किसी की हेल्प...
वो ज़ोर से हंसीं। बोलीं - मैं समझ गई, आपका मतलब ये है कि मेरे हज़बां मेरी कुछ मदद करते हैं या नहीं?
- हज़बां?? दोहराते हुए मैं कुछ चौंका।
- अरे बाबा, आप मेरे रेस्टोरेंट को रेस्त्रां कहते हैं कि नहीं?... मैं यूरोप जाती रहती हूं अपने पति के साथ, कह कर वो फिर हंसीं।
- ओह हसबैंड! ... मैं उनके कैफे के काउंटर को गौर से देख रहा था कि उनका इंटरव्यू जिस अंक में छपेगा उसकी कितनी कॉपियों की खपत यहां हो सकती है!
प्रेस पहुंच कर मैंने इंटरव्यू कर्मचारी को दे दिया। 
वह पेज बनाकर लाया तो कुछ झिझकते हुए बोला - "सर आप लिखिए कि कभी ऐसा सम्मान समारोह हमारे गांव में भी रखें, वहां औरतें अपने पति को मोट्यार कहती हैं ...पर वहां खेत में कुदाल- फावड़े से काम करते- करते वो लोहे की होने से तो नहीं बच पातीं!" कहते- कहते उसका स्वर बुझने लगा था।
- प्रबोध कुमार गोविल

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रचनाएँ
धुस - कुटुस
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इस किताब में प्रबोध कुमार गोविल की चुनिंदा इक्कीस कहानियां संकलित हैं जो हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर पर्याप्त चर्चित हैं। उल्लेखनीय है कि सभी में मुख्य सरोकार के रूप में आधुनिक मानवीय मूल्यों का ही समावेश है।
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15. खिलते पत्थर

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