मेरे पास पूरा एक घंटा था।स्पोर्ट्स क्लब में टेनिस की कोचिंग के लिए अपने पोते को छोड़ने के लिए मैं रोज़ छह बजे यहां आता था।फ़िर एक घंटे तक जब तक उसकी कोचिंग चलती, मैं भी इसी कैंपस में ही अपना शाम का टहलना पूरा कर लेता था। भीतर के लॉन और सड़कों पर किनारे - किनारे घूमता हुआ मैं इस समय बिल्कुल फ़्री महसूस करता हुआ अपनी दिन भर की थकान को भूल जाता था।एक घंटे बाद जब वह अपना रैकेट उठाए बाहर निकलता तो हम बातें करते हुए घर चले आते।वो मुझे बताता कि आज उसने किसे हराया, और किससे हारा, कौन - कौन सा यादगार शॉट लगाया, किस बात पर कोच सर ने उसे टोका, और किस बात पर उसकी तारीफ़ की।मैं ज़्यादा समय तो उसकी बात सुनने में लगाता, पर जब वह बोलता - बोलता थक जाता और ज़रा सांस लेने के लिए ठहरता, तब बातचीत का सिरा टूटने न देने की गरज से मैं उसे बताने लगता कि मुझे टहलने के दौरान उसके कौन- कौन से टीचर्स मिले, और कौन से दोस्त!मैं स्पोर्ट्स क्लब के मेन गेट से निकल कर जब बाहर आया तो वहां की साइड सड़क क्रॉस करते समय धीरे से वहां खड़े वॉचमैन ने मुझसे कहा - प्लीज़ सर, एक मिनट रुक जाइए !- क्यों? मैंने प्रश्न करने की निगाह से उसे देखते हुए अपनी चाल ज़रा धीमी की ही थी कि सामने सड़क से एक वैन ने गेट के भीतर प्रवेश किया।मैं रुक गया।उस वैन के पीछे- पीछे एक कार और आई। मेरा बढ़ा हुआ कदम रुक गया क्योंकि उस कार के पीछे एक साथ चार- पांच कारें उसी तरह धीमी गति से चलती हुई और आईं।कारों के पीछे फ़िर दो जीपें और थीं, तथा उनके बाद एक मेटाडोर में कुछ पुलिस कर्मी थे।मेटाडोर के बाद दो कारें और गुज़र गईं, उसके बाद पर्दे लगी हुई एक लम्बी काली कार मंथर गति से बल खाती निकलने लगी। कार की सभी खिड़कियों पर सुनहरे पर्दे टंगे थे।उसके बाद एक जीप और फ़िर एक वैन गुजरी जिसकी खिड़कियों से कुछ रायफलें या बंदूकें झांक रही थीं। इसके बाद एक एम्बुलेंस थी फिर एक रेड क्रॉस लगी कार के साथ एक ट्रॉलीनुमा गाड़ी भी सरसरा कर गुज़र गई। मुझे कुल मिला कर ऐसा लगा, जैसे कोई धड़धड़ाती हुई मालगाड़ी जीीी जीीी सामने से गुुजरी हो।वॉचमैन अब कुछ संतरियों की ओर देख कर मुस्करा दिया जो वहां इधर- उधर पोजीशन लेकर खड़े थे।उन्होंने हाथ में पकड़े यंत्र अब नीचे झुका लिए थे। एक दो पुलिस अधिकारियों की वो आवाज़ भी अब मंद पड़ गई थी जो वो वायरलैस संदेश में दे रहे थे।वॉचमैन ने मेरी ओर अदब से देखते हुए कुछ विनम्रता से कहा- अब आप जा सकते हैं सर!मैं सड़क के किनारे आगे बढ़ने लगा।गाड़ियों का काफ़िला घूम कर वहां से कुछ दूरी पर बने एक भव्य आलीशान बंगले की इमारत के इर्द- गिर्द खड़ा हो गया।मैं एक चक्कर लगा कर वापस वहीं आकर स्पोर्ट्स क्लब के सामने रुका ही था कि कुछ लोगों का एक छोटा सा समूह आपस में बातें करते हुए सामने से गुज़रा।लोग कम थे पर उनकी आवाज़ की खनक से ऐसा लग रहा था कि वो किसी गंभीर और सामयिक मुद्दे पर बात कर रहे हैं। उनकी चर्चा में पर्याप्त उत्तेजना भी थी।मुझे यकायक याद आया कि सुबह अख़बार भी तो इसी तरह की खबरों से भरा हुआ दिखाई दे रहा था जिस तरह की बातें ये लोग कर रहे थे।मैं मन ही मन ये विचार बना बैठा कि बच्चा खेल कर अा जाए तो मैं फ़ौरन उसे लेकर घर पहुंच जाऊंगा और टी वी पर विस्तार से देख कर ये जानने की कोशिश करूंगा कि आख़िर माजरा क्या है!मुझे सामने से गुजरते हुए लोगों की बातचीत से कुछ ऐसा आभास हुआ मानो कोई बड़ी घटना घटी है। कुछ लोग कह रहे थे कि हो न हो, आज ही रात से पूरे शहर में कर्फ्यू लग जाएगा।मेरे दिमाग़ में तुरंत ये बात कौंध गई कि शायद ये सब चर्चा और गतिविधियां उसी महामारी को लेकर हैं जिसके दुनिया भर में फ़ैल जाने की ख़बरों से आज का अख़बार रंगा हुआ था।अख़बार में लिखा था कि कुछ देशों में अचानक एक ऐसी भयानक बीमारी फ़ैल गई है जिसका अभी तक दुनिया में कोई इलाज नहीं है। मुझे याद आया कि कई देशों में इस बीमारी से संक्रमित लोगों को अलग थलग किया जा रहा था क्योंकि अब तक इसका यही एकमात्र इलाज था। अर्थात बचाव! ये खतरनाक बीमारी भी एक आदमी से दूसरे आदमी के शरीर में वैसे ही पहुंच रही थी जैसे कुछ वर्ष पहले एड्स या एचआईवी के बारे में कहा जा रहा था। उसका भी दुनिया में कोई इलाज नहीं था, और लोगों को बार- बार इस बात के लिए सचेत किया जा रहा था कि वे अनजान व्यक्ति के साथ शरीर संबंध न बनाएं। न जाने दुनिया के कौन से देश से जन्म लेकर अब ये नई बीमारी सारी दुनिया के उन्मुक्त सफ़र पर निकल पड़ी थी और एक से दूसरे व्यक्ति को ठीक उसी तरह संक्रमित कर रही थी।मुझे अपनी उम्र के चंद ऐसे पड़ाव याद आने लगे जब किसी न किसी महामारी ने अनियंत्रित होकर दुनिया में हड़कंप सा मचा दिया था। प्लेग, हैजा, चेचक आदि भी इसी तरह तो मानव जीवन को ललकारती हुई अाई थीं।शाम तक मीडिया में ये खबर फ़ैल गई कि पूरे देश में ही हर व्यक्ति को अपने घर में ही रहने की सलाह दी जा रही है। कहा जा रहा था कि कोई किसी को न छुए, न किसी से हाथ मिलाए। मैंने अभी- अभी नज़रों के सामने से जो काफ़िला गुजरता हुआ देखा था, वो मेरी आंखों में कौंध गया। मुझे लगा कि कोई भी रोग चाहे कितना ही भयंकर हो, वो इंसान को छू नहीं सकता। आख़िर में रोग को इंसान के हाथों पराजय स्वीकार करनी ही पड़ती है। मैंने देखा था कि वो इंसान जिन गाड़ियों में थे वो बुलेट प्रूफ थीं, उनके शीशे काले रंग से इस तरह ढके हुए थे कि उनमें किसी मच्छर का घुसना भी दुश्वार था। उनमें बंदूखें भी थीं, दवाएं भी, डॉक्टर भी, भोजन पानी भी। रोग कभी इतना ताकतवर नहीं हो सकता कि इंंसान को हरा दे।
इंसान विजेता है।
- प्रबोध कुमार गोविल