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13. एटिकेट्स

4 अगस्त 2022

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किसी की समझ में नहीं आया कि आख़िर हुआ क्या? आवाज़ें  सुन कर झांकने सब चले आए।
करण गुस्से से तमतमाया हुआ खड़ा था। उसने आंगन में खड़ी सायकिल को पहले ज़ोर से लात मारी फ़िर उसे हैंडल से पकड़ कर गिरा दिया था।
उसकी आंखें लाल हो रही थीं। बाल बिखरे हुए थे।
सामने से बूढ़े पिता को बिना लाठी का सहारा लिए आते देखा तो वो थोड़ा सहमा। उसने किसी तरह अपने क्रोध पर काबू पाया।
मां भी घबराई हुई दौड़ी अाई।
मां ने पहले कांपते हाथों से लाकर उसे पानी पिलाया फ़िर उसके बैठते ही नर्म हाथों से उसकी पीठ सहलाने लगी।
पिता लड़खड़ाते हुए वापस लौट गए।
कुछ देर बाद जब मां ने रोटी और गुड़ की थाली आम के अचार के साथ लाकर करण की झोली में रखी तब जाकर वो अपने आपे में लौटा। कुछ देर बाद उसने धीरे से मां को सब बताया।
उसकी नौकरी चली गई थी।
मां का जिगर लहूलुहान हो गया। तीन साल से इधर- उधर धक्के खाकर तो बेचारे को ये काम मिला था, सो भी हाथ से निकल गया।
पर हुआ क्या? क्या इन कम्बख्तों की नौकरी भी बरसाती है, मरी बादलों की राह देखते- देखते मुश्किल से होती बरखा की तरह तो मिली और शुरू होते ही बंद! फ़िर से धूप।
- क्या हो गया, तूने कोई गलती कर दी थी क्या बेटा? मां ने डरते हुए पूछा।
बेटा गरजा- तुमने मुझे ढंग के स्कूल में पढ़ाने की कभी सोची ही नहीं। अब मैं क्या जानूं, "एटिकेट्स" क्या होवे, हमारे तो हेड मास्टर को भी पता ना होगा। मुझे ये कह दिया सालों ने, कि तुझमें एटिकेट्स ना हैं, कल से मत आइयो।
मां की समझ में ये गोरखधंधा बिल्कुल नहीं आया। वो बुदबुदाती हुई अपने काम से लग गई।
करण ने तीन साल पहले दसवीं कक्षा में फेल हो जाने के बाद से स्कूल छोड़ दिया था और तभी से किसी काम- धंधे की तलाश में मारा- मारा फ़िर रहा था।
मुश्किल से किसी तरह उसे यहां से आठ किलोमीटर दूर स्थित एक कंपनी में चपरासी की नौकरी मिली थी।
बेचारा रोज सुबह सात बजे सायकिल लेकर जाता और दिन भर की ड्यूटी के बाद रात आठ - नौ बजे तक घर आ पाता था।
काम करते हुए उसे मुश्किल से पंद्रह दिन हुए होंगे कि उसकी ड्यूटी दफ़्तर के सबसे ऊंचे अफ़सर के कमरे में लग गई।
वो बारह बजे आते, फ़िर दोपहर को दो बजे ऑफिस में ही पीछे बने कमरे में खाना खाकर आराम करते। शाम चार बजे फ़िर दफ़्तर में बैठते, और उनका उठने का फ़िर कोई टाइम नहीं होता। कभी- कभी आधी रात तक बैठते।
करण को छुट्टी तभी मिलती जब वो चले जाते। हां , सुबह आठ बजे ही आना पड़ता था।
आकर ऑफिस की साफ- सफाई, पानी भरना, गाड़ी साफ़ करना। दोपहर को उनके घर से आया खाने का डब्बा लेकर खाना गर्म करके परोसना। उनके खा लेने के बाद बर्तन साफ करके रखना, सब उसकी ड्यूटी में शामिल था।
वो दोपहर की चाय लेकर फ़िर दोबारा ऑफिस के कमरे में आकर बैठते।
करण केवल इतना जानता था कि वो दफ़्तर के सबसे बड़े अफ़सर हैं। कोई - कोई तो उससे कहता कि मालिक ही हैं। चेयरमैन!
स्कूल में जितनी अंग्रेज़ी करण ने पढ़ी थी, उसके हिसाब से तो चेयरमैन माने कुर्सी का आदमी!
और आज दोपहर को करण से एक भारी भूल हो गई। इसी भूल के कारण उसकी नौकरी चली गई।
उसे कह दिया गया कि कल से मत आना।
असल में जिस कमरे में चेयरमैन साहब बैठते थे उसमें दो वॉशरूम थे। एक ऑफिस वाले हिस्से में, दूसरा भीतर के उस कमरे में, जहां वो खाना खाते और आराम करते।
भीतर का वाशरूम केवल उनका था, उसमें कोई नहीं जाता था।
करण खाने के बर्तन और पानी के गिलास भी ऑफिस वाले वॉशरूम में धोता था।
आज वो ट्रे लेकर वॉशरूम में आया तो वहां के वाशबेसिन का नल चल नहीं रहा था।
करण बर्तनों की ट्रे लेकर भीतर चला गया।
उसने ट्रे हाथ में पकड़े- पकड़े पैर से ही वाशरूम का दरवाज़ा ठेल दिया। दरवाज़ा खुला ही था।
वो ये सोच भी नहीं सकता था कि चेयरमैन साहब भीतर होंगे, क्योंकि अभी - अभी तो वो फोन पर किसी से लंबी बातचीत में थे। और उनके आराम करने के कक्ष व वॉशरूम के बीच भारी पर्दे का पार्टीशन था।
जैसे ही उसने खुला दरवाज़ा पांव से ठेला, हकबका कर चेयरमैन साहब पलटे। वे कमोड के पास इधर पीठ किए खड़े थे।
करण झटके से ठीक ऐसे पीछे हटा जैसे किसी दीवार से टप्पा खाकर गेंद लौटती है।
और शाम को एक अफ़सर से डांट खाकर जब करण ने "कल से मत आना" का फ़रमान सुना तभी उसे पता चला कि दस साल सरकारी स्कूल में पढ़ कर भी उसने एटिकेट्स नहीं सीखे थे।
करण की नाराज़गी और शर्मिंदगी ऐसी थी कि वो वहां से अपने बकाया रुपए लेने भी न जाना चाहता था। उसके पंद्रह दिन की पगार तो बनती ही थी।
किन्तु मां का दिल कहता था कि उसके बेटे को वो लोग केवल इतनी सी बात पर नहीं निकाल देंगे जिसका मतलब भी वो नहीं जानता।
मां ने समझा - बुझा कर अगले दिन उसे फ़िर काम पर भेजा और अच्छी तरह ये सिखा दिया कि एक बार वहां जाकर हाथ जोड़ कर अपनी गलती की माफ़ी मांग लेना, सब ठीक हो जाएगा।
अनपढ़ मां को एटिकेट्स का मतलब तो नहीं मालूम था लेकिन उसका दिल कहता था कि शायद इस का मतलब यही होता होगा जो उसने अब अपने बेटे को सिखाया है। मतलब गलती किसी की भी हो, गरीब आदमी हाथ जोड़ और अपनी गलती मानले।
और सचमुच करण ने देखा कि मां की बात सही निकली।
उसे एक बार चेतावनी देकर काम पर रख लिया गया।
दूध का जला छाछ भी फूंक- फूंक कर पीता है, करण ने फ़िर ऐसी गलती दोबारा नहीं की।
वह जान गया कि बड़ों की सेवा - नौकरी कैसे की जाती है।
उसने फ़िर उस ऑफिस में पूरे चालीस साल निकाले।
उसी नौकरी में रहते हुए उसकी शादी भी हुई, बच्चे भी हुए, मां और बापू भी गुज़रे!
उसे वहां ओहदे की तरक्की तो नहीं मिली पर उसकी पगार साल दर साल बढ़ती चली गई और दो वक़्त की रोटी की तकलीफ़ कभी नहीं हुई।
ओहदा क्या, उसे तो उसकी वफादारी ने वहां पीर - बावर्ची - भिश्ती - खर सब बना दिया।
चेयरमैन साहब का आदमी होने से उसके सारे काम आराम से होने लगे।
और जब नौकरी से रिटायर हुआ तो उसे ये देख कर गहरी तसल्ली हुई कि केवल वो ही नहीं बल्कि बूढ़े चेयरमैन साहब भी अब काम से छुट्टी लेकर घर बैठने लगे हैं, और उनकी जगह उनके बेटे को चेयरमैन बनाया गया है।
करण मन मसोस कर रह गया। काश, वो भी अपने बेटे अर्जुन को कहीं काम पर लगा पाता।
ऑफिस छोड़ देने के बाद एक दिन उसने भी हिम्मत करके साहब लोगों को बता दिया कि उसकी दो बेटियां और एक बेटा है। यदि बेटे को कोई काम मिल जाए तो वह हमेशा उनका अहसान मंद रहेगा।
उसका रिकार्ड तो अच्छा था ही, उस पर चेयरमैन साहब का हाथ भी था।
उसे भी काम पर रख लिया गया।
अर्जुन बीए पास था, पर अब जमाना ऐसा ही आ गया था कि एमए या बीए को भी चपरासी की नौकरी बेहद मुश्किल से ही मिल पाती थी।
अर्जुन के काम पर लग जाने से उसे बड़ा सहारा हो गया था। बेटियों की शादी कर देने के बाद अब उसके पास बैठे- बैठे बुढ़ापा काटने का ही काम था।
एक दिन शाम देर से अर्जुन ने ऑफिस से लौट कर उसे बताया कि चेयरमैन साहब के पिताजी घर में गिर जाने से काफ़ी चोट खा गए हैं और उनके शरीर में कई जगह फ्रैक्चर हो गए हैं।
उसने सोचा कि वो समय निकाल कर एक दिन अपने साहब को देखने ज़रूर जाएगा। यद्यपि ये आसान नहीं था क्योंकि उसकी अपनी तबीयत भी अब ठीक नहीं रहती थी।
फ़िर भी रोज़ अर्जुन के काम से लौटते ही वह सबसे पहले उससे यही पूछा करता था कि अब साहब की हालत कैसी है।
कुछ दिन बाद करण को अर्जुन से ही पता चला कि चेयरमैन साहब के पिता जी को अब हॉस्पिटल से घर ले आया गया है और उनके एक पैर तथा दोनों हाथों पर प्लास्टर चढ़ा होने से वो बिस्तर पर ही रहते हैं।
इस खबर से वह काफ़ी अनमना सा रहने लगा। पर खुद अपनी लगातार गिरती हालत उसे इजाज़त नहीं देती थी कि वो उनसे मिलने जा सके।
और फिर एक दिन अर्जुन ने बताया कि उसकी ड्यूटी घर पर चेयरमैन साहब के पिता जी के पास ही लगा दी गई है। उसे उन्हें दिन भर संभालना पड़ता है और उनकी देखभाल करनी पड़ती है।
एक रात करण अपने घर के बाहर सोया हुआ था और उसका बेटा अर्जुन अपने दोस्तों के साथ बातें करने में मशगूल था।
अगले दिन छुट्टी होने से देर रात तक गप्प गोष्ठी चल रही थी।
अर्जुन को ये ज़रा भी अहसास नहीं था कि मुंह ढक कर लेटे बीमार पिता उनकी बातें सुन रहे हैं। वो तो दोस्तों को अपनी ड्यूटी के सब सियाह - सफ़ेद बताने में लगा था।
अर्जुन कह रहा था- बूढ़े के सारे शरीर पर प्लास्टर चढ़ा रहता है, दिन में तीन - चार बार साले को नंगा करके शौचघर में ले जाना पड़ता है...उसके दोस्त हैरानी से खड़े सुन रहे थे।
पास ही बिस्तर पर मुंह ढक कर लेटा हुआ उसका बूढ़ा पिता करण ज्वर से बुरी तरह कांप रहा था। मोटी चादर भी उसकी कंपकंपी दूर नहीं कर पा रही थी।
कहते हैं आदमी आख़िरी वक़्त में अपनी पुरानी बातों को याद करता है। करण को भी याद आ रहा था कि चालीस साल पहले एक दिन कंपनी के चेयरमैन साहब के वॉशरूम में बिना " नॉक" किए घुसने पर उसकी नौकरी चली गई थी।
उसे अचानक ये भय सताने लगा कि न जाने उसके बेटे को  "एटिकेट्स" का मतलब मालूम है या नहीं!
(समाप्त)

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रचनाएँ
धुस - कुटुस
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इस किताब में प्रबोध कुमार गोविल की चुनिंदा इक्कीस कहानियां संकलित हैं जो हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर पर्याप्त चर्चित हैं। उल्लेखनीय है कि सभी में मुख्य सरोकार के रूप में आधुनिक मानवीय मूल्यों का ही समावेश है।
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