गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2/2।।
इसका अर्थ है,"हे अर्जुन! इस विषम समय पर तुम्हें यह मोह कहाँ से प्राप्त हुआ।न यह श्रेष्ठ पुरुषों के लिए उचित हैन स्वर्ग को देने वाला है, और न ही यह कीर्ति प्रदान करने वाला है।
प्रायः हम रोजमर्रा के जीवन में मोह के शिकार हो जाते हैं। कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन का मोहग्रस्त होना प्रथम दृष्टया तार्किक था। युद्ध क्षेत्र में अपने बंधु बांधवों को स्वयं के खेमे में और विरोधी खेमे में देखकर उनका मन विचलित हो गया और अपनी इस इस दुविधा की स्थिति को उन्होंने अपने आराध्य, मार्गदर्शक और मित्र भगवान श्री कृष्ण के सम्मुख प्रकट किया। अर्जुन का यह मोह संभावित भारी विनाश और अपने ही स्वजनों की हानि को लेकर था। इस तरह की दुविधा वाली परिस्थिति हम साधारण मनुष्यों के जीवन में भी दिखाई देती है, जब मनुष्य मोह और दुविधा का शिकार हो जाता है।उसे यह समझ में नहीं आता कि अब वह कौन सा कदम उठाए।ऐसे में वह कोई स्पष्ट और उचित निर्णय नहीं ले पाता है।
हमारे रोजमर्रा के जीवन में किसी न किसी रूप में ऐसा मोह दिखाई देता ही है।उदाहरण के लिए सुबह सोकर उठने के समय नींद के प्रति मोह, जो हमें सही समय पर उठकर अपना कार्य करने से रोकता है।उदाहरण के लिए जब हमें किसी से कोई स्पष्ट बात करनी हो तो हम संबंधों में बिगाड़ के मोह से कुछ कह नहीं पाते।जैसे, कोई गलती करने पर अपने पुत्र पुत्रियों या परिजनों को कड़ी भाषा में बोलने की जरूरत पड़े तो हम मोहग्रस्त होते हैं और उनके रूठ जाने के डर से सही बात नहीं कह पाते।
वास्तविकता यह है कि यथार्थ की दुनिया में इस तरह मोहग्रस्त होने पर सारे कामकाज अस्त-व्यस्त हो जाएंगे। उदाहरण के लिए अगर डॉक्टर,मरीज को दर्द होने के मोह में इंजेक्शन न लगाएं या कड़वी दवा न दें तो यह अपने कर्तव्य से न्याय नहीं होगा। शिक्षक बच्चों को गलती करने पर न डांटें और मोहवश बस उन्हें पुचकारते रहें तो यह न सिर्फ बच्चों से अन्याय है बल्कि उनके भविष्य से खिलवाड़ भी है।
ये बातें बहुत छोटी दिखाई दे रही हैं, लेकिन इनसे हमारा चरित्र और व्यक्तित्व निर्मित होते रहता है। इन चीजों के जारी रहने पर भविष्य में जब कोई बड़ा और महत्वपूर्ण अवसर सामने आता है तो हम अपनी उसी दुविधा और मोह वाली स्थिति के कारण सही निर्णय नहीं ले पाते और अनिर्णय का आदी होने के कारण अनेक महत्वपूर्ण अवसर गंवा देते हैं।
यह कोई आवश्यक नहीं है कि भ्रम और दुविधा की स्थिति केवल कुरुक्षेत्र जैसे युद्ध के बड़े अवसर पर ही उत्पन्न होती है। जीवन के सामान्य प्रसंग में भी ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब हम मोहग्रस्त हो उठते हैं ।ऐसी स्थिति में भगवान श्री कृष्ण का उपदेश प्रासंगिक हो उठता है कि बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए छोटी से छोटी दुविधा भी मनुष्य के मनोबल को गिरा सकती है अतः इससे तुरंत उबरना आवश्यक है।
(क्रमशः)
डॉ. योगेंद्र