विद्वानों में शत्रुता
विद्वानों में परस्पर शत्रुता का भाव बहुत अधिक देखने को मिलता है। हर व्यक्ति स्वयं को दूसरों से कहीं अधिक बुद्धिमान समझता है। वह किसी दूसरे को सहन नहीं कर सकता। जो भी उससे आगे बढ़ता है अथवा उससे अधिक यश कमाता है, वह दूसरों की आँख की किरकिरी बन जाता है। हर कोई उसे पटकनी देने की फिराक में रहता है। जहाँ अवसर मिला वहीँ दूसरे की टाँग खीचने का सिलसिला आरम्भ हो जाता है।
किसी भी कार्यालय, संस्थान, राजनैतिक पार्टी, सामाजिक संस्था अथवा धार्मिक संस्था आदि में इसका उदाहरण सरलता से देख सकते हैं। और तो और शिक्षा का मन्दिर कहे जाने वाले विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में इसका प्रभाव सबसे अधिक मिलता है। वहाँ पर सभी लोग ही तथाकथित विद्वान होते हैं। वे अपने से अधिक विद्वान साथी को बर्दाशत नहीं कर पाते। उसे देखकर उनका खून खौलने लगता है। वे साम, दण्ड, भेद आदि किसी का भी सहारा लेने से बिल्कुल नहीं चूकते।
इसलिए उठा-पटक का खेल हर स्थान पर चलता रहता है। कहीं भी कोई भी किसी दूसरे को धक्का मारकर, नीचे गिराकर सीढ़ी पर चढ़कर महान बन जाना चाह्ता है। उसे अपने सामने वाले की बिल्कुल भी चिन्ता नहीं होती कि उसके मन को ठेस लगी होगी या उसे कितना कष्ट हुआ होगा। उसे तो बस अपना अहं साधना होता है, अन्य का नहीं।
साहित्य जो समाज को दिशा देने का कार्य करता है, वहाँ पर यह ईर्ष्या तत्त्व या गुर्राहट बहुत अधिक दृष्टिगोचर होती है। साहित्य की रचना करना बुद्धिजीवियों का कार्य होता है। हर नया या पुराना रचनाकार अपनी रचना को सर्वोत्कृष्ट मानता है और दूसरों की रचनाओं को कूड़ा कहने से भी बाज नहीं आते। अपने से इतर रचनाकारों को पढ़ना उन्हें अपना अपमान जैसा लगता है।
ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी किसी नए रचनाकार को इतना तिरस्कृत करते हैं कि उन्हें लगने लगता है कि शायद उन्होंने रचना लिखकर कोई अपराध कर दिया है। नए रचनाकारों को प्रोत्साहित करना यद्यपि बड़े लेखकों का प्राथमिक दायित्व होना चाहिए। परन्तु होता इसके विपरीत है, वही नए पौधों को पनपने से पहले उन्हें जड़ से उखाड़ देना चाहते हैं।
इसी कड़ी में यह भी जोड़ना चाहती हूँ कि आज नए कलमकारों का दिमाग भी सातवें आसमान पर है। वे स्वयं को सबसे महान समझते हैं। न वे अपने महान ग्रन्थों को पढ़ना चाहते हैं और न ही किसी विद्वान का परामर्श सुनना या माना चाहते हैं। भाषा पर उनकी पकड़ नहीं है। इसीलिए साधना के आभाव में आज साहित्य का बँटाधार हो रहा है। इससे न समाज और न साहित्य किसी का भी भला नहीं हो रहा। पता नहीं कलम के ये अनगढ़ सिपाही अपनी आने वाली भावी पीढ़ी को क्या विरासत सौंपना चाहते हैं?
संस्कृत भाषा के किसी विद्वान ने इस विषय पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है -
पण्डित: पण्डितं दृष्ट्वा श्वानवत् गुरगुरायते
अर्थात् एक विद्वान दूसरे विद्वान को देखकर ऐसे गुर्राते हैं जैसे एक कुत्ते को देखकर दूसरा कुत्ता भौंकता है।
विद्वत्ता का यह मिथ्या गर्व मनुष्य को कहीं का भी नहीं छोड़ता। ऐसे लोग समाज में शत्रु की भाँति कार्य करते हैं। एक-दूसरे को काट खाने के स्थान पर छोटों के प्रति सहृदयता का भाव होना चाहिए। एवंविध बड़ों के प्रति सम्मानभाव होना आवश्यक है। तभी एक विद्वान दूसरे से कुछ सीख सकता है। अपनी अपनी डफली अपना अपना राग अलापने के स्थान पर यदि सभी महानुभाव सद्भावना से मिलजुलकर रह सकें, तो इस समाज में अपेक्षाकृत अधिक सौहार्द बन सकता है। इस प्रकार अपनी भावी पीढ़ियों को स्वस्थ धरोहर सौंपी जा सकती है।
चन्द्र प्रभा सूद