जीवन में जितने कदम भी कोई अपने साथ चले उतना ही उसका आभार मानना चाहिए। अतः किसी से शिकवा-शिकायत नहीं करनी चाहिए। इससे मनुष्य को स्वयं को ही कष्ट होता है। यदि मनुष्य यह सोच ले कि वह भी तो किसी एक का हाथ सारी आयु नहीं थामता बल्कि एक को छोड़कर दूसरों का हाथ थाम लेता है। तब उसके मन में किसी के प्रति विद्वेष की भावना जन्म नहीं लेगी। वह बस यही सोचेगा कि समय और परिस्तिथियों के चलते जीवन के मायने बदल जाते हैं। इसलिए हमारे साथी भी बदलते रहते हैं।
मनुष्य जीवन में न जाने कितने ही ऐसे पल आते हैं जब उसे किसी के साथ की महती आवश्यकता होती है। उस समय वह प्रयास करके किसी कन्धे का सहारा लेता है। फिर स्वार्थ पूर्ण हो जाने के बाद उसकी ओर मुड़कर भी नहीं देखता। कुछ उद्धरणों से इस पर विचार करेंगे। उससे पूर्व निम्न श्लोक देखते हैं जिसमें किसी कवि ने भी हमारे विचारों को पुष्ट किया है -
यथा हि पथिक: कश्चित् छायामाश्रित्य तिष्ठति
विश्रम्य च पुनर्गच्छेत् तद्वद् भूतसमागम: ॥
अर्थात् जिस प्रकार यात्रा करने वाला पथिक कुछ समय के लिए वॄक्ष के नीचे विश्राम करता है। थोड़ा समय आराम करने के बाद वह आगे निकल जाता है। उसी प्रकार मनुष्य को थोड़े समय के लिए उस वॄक्ष की तरह लोग छाया देते है और फिर उनका साथ छूट जाता है।
अर्थात् मनुष्य उनका साथ छोड़कर अपने निश्चित किए हुए रास्ते पर चला जाता है। फिर से वह नए सम्बन्ध बनाता है। यह क्रम अनवरत चलता रहता है। इस तरह अन्य लोगों के साथ सम्बन्ध बनते-बिगड़ते रहते हैं। यह एक शाश्वत सत्य है, जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता।
हम कहीं घूमने जाते हैं या वापिस घर लौटते हैं तो यातायात के किसी भी साधन यानी रेल, बस, हवाई जहाज, समुद्री जहाज आदि का सहारा लेते हैं। जो सीट हमें अलाट की होती है, उस पर न तो हम किसी को बैठने देते हैं और न ही किसी को वहाँ कोई सामान रखने देते हैं। यदि कोई ऐसा करने का प्रयास करता है तो हमारा उससे झगड़ा हो जाता है। परन्तु जब हमारा गन्तव्य आ जाता है तो हम उठते हैं और सीट छोड़कर ऐसे चल देते हैं कि मानो हमारा कभी उससे वास्ता ही नहीं था। अपने प्रियजनों से मिलने के उत्साह में हम उस सीट की और पीछे मुड़कर भी नहीं देखते। तब हम उससे निस्पृह हो जाते हैं।
इसी प्रकार किसी होटल में या किसी अपने बन्धु-बान्धव के घर में ठहरते हैं तो अपने कमरे से लगाव होता है। कहीं से भी घूमकर आने के बाद उस तथाकथित अपने कमरे या उस बिस्तर पर बड़ा सुकुन मिलता है। फिर जब हम वहाँ से विदा लेते हैं तो वही अपना कहे जाने वाला कमरा हमारे लिए पराया हो जाता है। उसे बिना किसी मलाल के हम छोड़कर चल देते हैं मानो वे कभी अपने थे ही नहीं।
वर्षों जिस कार्यालय में मनुष्य कार्य करता है, रिटायरमेंट के बाद वही ऑफिस, वही कमरा, वही सीट और वहाँ के लोग भी पराए लगने लगते हैं। कुछ ही समय पश्चात सब अनजाना-सा हो जाता है। वहाँ जाने पर कुछ अच्छा नहीं लगता। इन भौतिक स्थानों या मनुष्यों के प्रति हमारा यह मोह अथवा सम्बन्ध आवश्यकता के अनुसार होता है।
उसी प्रकार इस शरीर और अपने कहे जाने वाले बन्धु-बान्धवों से भी हमारा सम्बन्ध तभी तक होता है जब तक यह श्वास चलती रहती है। जब हमारे इस संसार से विदा होने का समय आता है तब मनुष्य निस्पृह होकर आँखे मूँद लेता है। तब ऐसा लगता है कि मानो उसे किसी से कोई लेना देना ही नहीं था। अपना-पराया सब जीते जी की माया है। समय बीत जाने के बाद मनुष्य हाथ झाड़कर सब कुछ छोड़-छाड़कर बिना पीछे देखे चल पड़ता है। इसलिए किसी से कभी शिकायत नहीं करनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद