आत्मिक शान्ति मनुष्य की जीवनदायिनी शक्ति कहलाती है। जो मनुष्य इस शक्ति को प्राप्त कर लेता है, वह प्रसन्न रहता है व उत्साहित रहता है। यदि मनुष्य का मन प्रसन्न रहेगा तो उसके अन्तस में उत्साह बना रहता है। उस समय वह किसी भी शर्त पर खाली नहीं बैठ सकता। उसके पैर नहीं टिकते और वह कहता हैं मेरा काम करने का मन कर रहा है। तब मनुष्य सचमुच शीघ्रता से अपने सभी कार्यों को निपटा लेता है, फिर भी उसे कोई थकावट नहीं होती और न ही उसके उत्साह में कमी आती है। कभी-कभी ऐसा संयोग भी बनता है कि सब कार्य निपटा लेने के बाद उसे समझ में ही नहीं आता कि अब वह क्या करे?
इस आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त कैसे किया जाए? यह ज्वलन्त प्रश्न है। यह बाजार में बिकने वाली कोई वस्तु नहीं है कि वहाँ गए और किलो के भाव से खरीदकर ले आए। फिर इस लबादे को ओढ़ लिया जाए और यह समझ लिया जाए कि आध्यात्मिक शान्ति की खोज पूर्ण हो गई। इसे पाने के लिए मनुष्य को अपने मन को यत्नपूर्वक साधना होता है। मन में सात्विक विचारों का होना बहुत आवश्यक होता है। अपने मन को सु-मन बनाना होता है जिसमें हर किसी के लिए स्थान बन सके। मनुष्य को अपने इस चञ्चल मन को कुमार्ग पर जाने से बलपूर्वक रोककर सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करना होता है।
मनुष्य का मन तब प्रसन्न हो पाता है जब वह अपने पारिवारिक, धार्मिक, सामाजिक कार्यों का प्रतिपादन सुचारू रूप से कर लेता है। अपने दायित्वों को निभाने के कारण उसके मन में एक सन्तुष्टि का भाव आता है। इसके अतिरिक्त अपने मन को परोपकारी कार्यों में लगाने से भी आत्मतुष्टि का भाव भी मनुष्य के मन में आता है। यह सात्विक भाव तभी उसके हृदय में आ सकता है जब वह अपने मन से कुविचारों को दूर कर सके।
जहाँ मनुष्य अपने दायित्वों के निर्वहण में कोताही बरतता है वहाँ उसका मन अशान्त हो जाता है।उसके मानस में अपराध बोध होता है जो उसे विचलित करता है। ऐसे समय में कुछ लोग आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं, तब उन्हें पलभर भी चैन नहीं मिलता। कभी उन्हें पुलिस का तो कभी कानून का डर सताता है। दिखाने को तो वे अकड़कर चलते हैं पर अन्दर से वे खोखले होते हैं। अपने अपराधबोध से ग्रस्त होकर ऐसे लोग मानसिक यन्त्रणा भोगते हैं। इसका कारण उनका नैतिक आचरण होता है। हम अपने आसपास ऐसा अनुभव कर सकते हैं।
कहते हैं गलत कार्य यदि सौ परदों में भी छिपकर किया जाए, वह कभी-न-कभी या समय रहते प्रकाश में आ ही जाता है। मनुष्य अपनी शक्ति या पद के बल पर कुछ समय के लिए अपने कुकृत्यों को दबा तो सकता है पर प्रकाशित होने से नहीं रोक सकता। वे तो मनुष्य के न चाहने पर भी मुस्कुराते हुए सबके समक्ष आ खड़े हो जाते हैं। उस समय उसे आत्मग्लानि होती है। तब वह बेतुके तर्क देकर स्वयं को दूसरों की नजर में सन्तुष्ट करने का असफल प्रयास करता है। फिर ऐसा करके वह स्वयं ही दूसरे लोगों की नजरों में हंसी का पात्र बनता है।
आत्मिक शान्ति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को देश, धर्म सामाज और परिवार के हितार्थ कार्य करने चाहिए, दूसरों की सहायता करनी चाहिए। सभी जीव-जन्तुओं के लिए भी मनुष्य के हृदय में सहृदयता का भाव बना रहना चाहिए। ऐसे परोपकारी कार्यों का निष्पादन करना बहुत आवश्यक होता है। इससे जहाँ मनुष्य का अपना मन शान्त रहता है, वहीं दूसरों के ऊपर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।
चन्द्र प्रभा सूद