तथाकथित धर्मगुरुओं से किनारा
बहुत आश्चर्य होता है यह देखकर कि लोग इतने अधिक असभ्य और असहिष्णु कैसे हो सकते हैं? जिनकी कोई गलती नहीं है, ऐसे निर्दोष लोगों को हानि कैसे पहुँचा सकते हैं? उनका मन प्रायश्चित करने के स्थान पर हिंसा के लिए कैसे उतारू हो जाता है? उनका हृदय आगजनी करने और तोड़फोड़ करने की गवाही कैसे दे सकता है? सरकारी अथवा निजी सम्पत्तियों को बरबाद करने का हक़ उन्हें किसने दिया है?
आज हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। विज्ञान आकाश-पाताल सब स्थानों पर अपनी पैठ बना चुका है। एक ओर विज्ञान हर तरह की सुख-सुविधाओं का अविष्कार हमारे लिए कर रहा है। दूसरी ओर हम कूप मण्डूक बने तथाकथित धर्मगुरुओं के चंगुल में फंसकर अपने दायित्व से मुँह मोड़ते जा रहे हैं। सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्म न तो व्यापर होता है और न ही किसी की व्यक्तिगत जागीर है।
आज मनुष्य सत्य, अहिंसा, सहिष्णुता, सौहार्द, दया, ममता, भाईचारा आदि मानवीय मूल्यों को विस्मृत करता जा रहा है। वह भूले से भी यह सोचना नहीं चाहता कि उसका गुरु उसे सन्मार्ग की ओर ले जा भी रहा है या नहीं। उसका गुरु कहीं उसे पथभ्रष्ट करके, अपने लिए कहीं राजनैतिक रोटियॉँ तो नहीं सेक रहा।
गुरु वह होता है जो अपने शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति करता हो। परमपिता परमेश्वर में लीन होने का मार्ग दर्शाए। अपने शिष्य की सर्वविध उन्नति, चहुँमुखी विकास करवाने वाला हो। यदि गुरु अधर्मी हो, कामी हो, कुकर्म करने वाला हो तो ऐसे गुरु का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए। ऐसे गुरु का शिष्य होने से अच्छा तो यही है कि मनुष्य गुरु बनाने से परहेज करे।
द्रोणाचार्य जैसा गुरु भी नहीं होना चाहिए जिसने अपने राजगुरु के पद को बचाए रखने के लिए एक साधारण भील बालक एकलव्य से उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया था ताकि वह सबसे महान धनुर्धर न बन सके।
हमारी भारतीय संस्कृति में गुरु को एक बहुत उच्च स्थान दिया गया है। उसकी प्रशस्ति में मनीषियों ने 'गुरुगीता' जैसे कई ग्रन्थ लिखे है। गुरु वास्तव में अपने शिष्य के अज्ञान को दूर करके उसके हृदय में ज्ञान का प्रकाश करता है। उसमें दुर्गुणों का विकास नहीं होने देता, उनके कारण शिष्य की उन्नति में बाधा न आए, इसका पूरा ध्यान रखता है।
भारत में गुरु को मनीषी ईश्वर से कम नहीं समझते। इसलिए गुरु को देवता कहकार उसका सम्मान किया जाता है। उसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश त्रिदेवों के बराबर लाकर खड़ा किया जाता है। गुरु स्वयं यम, नियम, ब्रह्मचर्य आदि का पालन करता है। अपने शिष्य में भी उन्हीं गुणों को देखना चाहता है।
अथवा फिर शिष्य में गुरु गोरखनाथ जी जैसी सामर्थ्य हो जो मार्ग से भटक गए अपने गुरु को सन्मार्ग पर वापिस ला सके। ऐसे गुरु और शिष्य की जोड़ी धन्य है, उन्हें हम सादर नमन करते हैं।
शिष्यों को तथाकथित गुरु आज अपरिग्रह का सन्देश देते हुए, स्वार्थवश पैसा जुटाकर स्वयं अपने लिए सम्पत्तियाँ जुटाने में लगे रहते हैं। उनका मानना है कि उनके सामने ईश्वर की क्या बिसात है? वे स्वयंभू ईश्वर कहलाना पसन्द करते हैं। यदि कोई उनकी सत्ता को चुनौती दे अथवा उन पर किसी तरह का आरोप लगाए तो वे आपे से बाहर हो जाते हैं। उस व्यक्ति को जड़ से उखाड़ फैंकने की जुगत में लग जाते हैं। अपने झूठे अहं के कारण उसे तरह-तरह से प्रताड़ित करते हैं।
इस तरह के धूर्त, हिंसक, पाखण्डी एवं दुष्कर्मी तथाकथित धर्मगुरु तो किसी भी धार्मिक नियम से गुरु कहलाने के योग्य नहीं होते हैं। शतरंज की बिसात बिछाकर बैठने वाले खिलाडी तो वे हो सकते हैं परन्तु गुरु कदापि नहीं कहे जा सकते। ये लोग विश्वसनीय नहीं होते और न ही किसी के सगे होते हैं।
वास्तव में अपनी आध्यात्मिक उन्नति की कामना करने वाले सज्जनों का ऐसे तथाकथित धर्मगुरुओं से किनारा कर लेना सदैव श्रेयस्कर होता है। इसलिए यत्नपूर्वक अपने लिए सद् गुरु की तलाश करनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद