धन का सदुपयोग
अपने परिश्रम या खून-पसीने से कमाए गए धन का सदुपयोग करना प्रत्येक मनुष्य को सीखना चाहिए। यानी घर-परिवार, देश, धर्म और समाज के लिए अपने धन को व्यय करना चाहिए। धन को मनुष्य का सहायक या रक्षक बनना चाहिए न कि उसे अपने पैर की बेड़ी बनने देना चाहिए। यदि कोई मनुष्य धन के आगमन पर नकचढ़ा बन जाएगा या अपने झूठे अहं के कारण दूसरों को कीड़े-मकौड़ों की तरह समझकर उनकी अवहेलना करने लग जाएगा, तो उसे समाज से कटकर रहने के लिए विवश होता पड़ जाता है।
इस तरह वह समाज में अकेला पड़ जाता है। कोई भी बन्धु-बान्धव उसकी परवाह नहीं करता। हाँ, उससे मतलब होने पर उसकी चाटुकारी अवश्य कर लेते हैं। ये ऐसे सम्बन्ध होते हैं जो केवल स्वार्थ के कारण बनते हैं और उसके पूर्ण होने तक ही टिके रह पाते हैं। इन सम्बन्धों की अवधि बहुत सीमित समय के लिए होती है। ये सम्बन्ध लम्बे समय तक साथ नहीं निभाने में असफल रहते हैं।
इन्सान को यह भी सदा याद रखना चाहिए कि वह अपनी कमाई के हिसाब से नहीं बल्कि अपनी जरूरत के हिसाब से गरीब होता है। उसके पास प्रभूत धन हो परन्तु उसका मन संकीर्ण हो, तुच्छ हो अथवा वह धन पर कुण्डली मारकर बैठ जाए तो सब कुछ होते हुए भी वह व्यक्ति गरीब ही कहलाएगा। अर्थात् उससे बड़ा गरीब इस दुनिया में और कोई हो ही नहीं सकता।
कहने का तात्पर्य यही है कि यदि धन की कमी नहीं है परन्तु घर के आवश्यक खर्चों में अनावश्यक कटौती की जाए और धन व्यय न किया जाए या उससे किसी असहाय की सहायता न की जाए या उसे किसी शुभकार्य, दानकार्य में खर्च न किया जाए या फिर सामाजिक कार्यों के लिए भी उसका उपयोग न किया जाए, तो ऐसे धन का होना न होना बराबर होता है। उस धन का किसी के लिए कोई औचित्य नहीं रह जाता।
मनीषी ऐसे धन को मिट्टी के ढेले के समान समझते हैं। उनकी दृष्टि में यह अनुपयोगी धन व्यर्थ होता है। चाहे वह धन घर में पड़ा हो या बैंक के लॉकर में या फिर पुराने समय की तरह जमीन में गड़ा हो। ऐसा धन या तो चोर-डाकू लूटकर ले जाते हैं या फिर उन धनिकों के जामाताओं के काम में आता है।
ऐसे लोगों के बच्चों को जब उनकी मृत्यु के पश्चात प्रचुर धन बिना किसी परिश्रम और रोक-टोक के मिल जाता है, तो वे उसे दोनों हाथों से उड़ाते हैं। उनकी इस अवस्था का लाभ अवसरवादी लोग उठाते हैं। वे उन्हें बहकाकर कुमार्गगामी बना देते हैं। उन्हें व्यसनों में उलझकर, उनके साथ ही उस पैसे पर स्वयं भी ऐश करते हैं। उस समय अपने शुभचिन्तक उन्हें जहर की तरह लगते हैं। जब सब लुट जाता है तब दूसरों को कोसने या लानत-मलानत करने से कोई लाभ नहीं होता।
ऐसे धनिक गरीबों की श्रेणी में ही गिने जाते हैं जो धन का उपयोग करने के स्थान पर अपनी चमड़ी या शरीर को कष्ट देना अधिक पसन्द करते हैं। जब तक यह उनके पास पैसा रहता है, तभी तक दुनिया उन्हें पूछ लेती है कि 'भाई तू कैसा है?' अन्यथा इस संसार में कोई भी किसी की परवाह नहीं करता। सभी अपने में मस्त रहते हैं।
मनुष्य यदि जीवन में लोकप्रियता पाना चाहता है तो उसे पैसों को हमेशा जेब में रखना चाहिए, अपने दिमाग में नहीँ। इसका अर्थ यही है कि पैसा सदा उसकी जेब में रहना चाहिए, उसे उसके सिर पर चढ़कर बोलना नहीं चाहिए। धन का उपयोग तभी होता है जब वह घर-परिवार की आवश्यकताओं को पूर्ण करे, कष्ट में पड़े हुए बन्धु-बान्धवों की सहायता करे, परोपकारी कार्यों में लगाया जाए, देश-धर्म तथा समाज के हित के साधन में लगाया जाए।
जो व्यक्ति अपने धन का संग्रह न करके उसका सदुपयोग करते हैं, वही लोग वास्तव में अपने जीवन का आनन्द उठाते हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं करना चाहिए कि मनुष्य अपने सुख-दुःख के लिए संचय न करे, बस अपनी मौज-मस्ती में या व्यसनों में उसे उड़ा दे या बरबाद कर दे। अपने धन को बरबाद करने वाले अन्ततः खली हाथ रह जाते हैं। फिर उन्हें अपने शेष जीवन में पश्चाताप करना पड़ता है। धन को व्यय करना भी एक कला है, एक अनुशासन है, जिसका पालन सभी मनुष्यों को करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद