स्वर्ग और नरक की परिकल्पना
स्वर्ग और नरक दोनों ही मनुष्य इसी संसार मे अपने कर्मों के फलस्वरूप भोगता है। शुभकर्मों की अधिकता होने पर उसे सुख-समृद्धि, अच्छा स्वस्थ, आज्ञाकारी सन्तान, मान देने वाले बन्धु-बान्धव, परवाह करने वाले परिवारी जन मिलते हैं। इनके सानिध्य में मनुष्य स्वर्ग के समान सुख भोगता है। ऐसे मनुष्य की चारों ओर कीर्ति फैलती है।
इसके विपरीत अशुभकर्मों की जब अधिकता होती है तब उसे कष्ट-परेशानियाँ मिलती हैं। अपने प्रिय बन्धु-बान्धव भी साथ छोड़ देते हैं। मनुष्य की अपनी परछाई भी उसे छोड़कर चल देती है। हर तरफ से उसकी कटु आलोचना होती है। इस स्थिति को भोगना उसके लिए वास्तव में नारकीय होता है। उस समय कोई उसकी सहायता के लिए आगे बढ़कर नहीं आता। दुखों के मकड़जाल में फंस वह छटपटाता रहता है।
किसी कवि ने निम्न श्लोक में बताया है कि किन कारणों से मनुष्य के लिर नरक भोगने की स्थिति बनती है -
अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।
नीचप्रसङ्ग: कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्।।
अर्थात् अत्यन्त क्रोध करना, अति कटु तथा कर्कश वाणी का होना, निर्धनता, अपने ही बन्धु बान्धवों से वैर करना, नीच लोगों की संगति में रहना तथा कुलहीन की सेवा करना ये सभी स्थितियाँ पृथ्वी पर ही नरक भोगने का प्रमाण है।
इस श्लोक में कवि का कथन है कि मनुष्य बहुत अधिक क्रोध करता है, तो उसके अपने प्रियजन भी उसके समक्ष आने से कतराते हैं। कितने ही गुण उसमें क्यों न हों, कोई भी उसे पसन्द नहीं करता। जीवन के हर क्षेत्र मे सदा उसे परेशानियों तथा अकेलेपन का सामना करना पड़ता है। अपने क्रोध पर यदि वह नियन्त्रण नहीं करता, तो उसे नरक के समान कष्ट भोगने पड़ते हैं।
अति कटु तथा कर्कश वाणी में बोलना भी मनुष्य के लिए अच्छा नहीं होता। कौवे को उसकी कर्कश वाणी के कारण घर की मुँडेर से कंकर मारकर उड़ा दिया जाता है। इसके विपरीत कोयल को उसकी मधुर आवाज के कारण सर्वत्र सराहा जाता है। यही स्थिति एक मनुष्य की भी होती है। सदा कर्कश बोलने वाले को कोई पसन्द नहीं करता चाहे वह कितना भी प्रिय क्यों न हो।
निर्धनता या गरीबी सबसे बड़ी बीमारी है। निर्धन व्यक्ति से सभी बन्धु-बान्धव किनारा कर लेते है। उन्हें यही दर होता है कि कहीं वह कुछ माँग न ले। इसलिए उन्हें उसकी सहायता न करनी पड़ जाए। ऐसी काठिन परिस्थितियों से घिरे मनुष्य के लिए मनीषी कहते हैं कि व्यक्ति की परछाई भी उसका साथ छोड़ देती है। ऐसे समय मे मनुष्य नरक के समान जीवन जीता है। न वह अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकता है और न ही अपने परिवार की।
दुर्जनों की संगति में जब मनुष्य फँस जाता है, तो उसका उस नरक से निकल पाना सम्भव नहीं हो पाता। उसे सारा समय पुलिस, न्यायालय का डर बना रहता है। समाज ऐसे व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखता है। उसे भी किसी को बताते हुए शर्म आती है कि वह देश या धर्म या समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं। ऐसा व्यक्ति धन तो बहुत कमा लेता है पर समाज में अपना स्थान नहीं बना सकता।
कुलहीन व्यक्ति यानी जिसके कुल का ज्ञान न हो, उनकी सेवा करना भी मनुष्य के लिए नरक भोगने के समान होता है। इस श्रेणी में उन लोगों को भी रख सकते हैं, जिन्हें समाज नाजायज सन्तान मानता है। इन लोगों के संसर्ग में रहने वाले मनुष्य को समाज हेय समझता है। उनके साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं बनाना चाहता।
इस श्लोक के अनुसार ये कुछ कारण हैं जो मनुष्य के लिए नरक के समान दुखदायी होते हैं। मनुष्य को हर कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए। अपने लिए दुख खरीदने या अपनी राह में काँटे बिछाने के स्थान पर उसे अपने और अपनों के लिए सुख-शान्ति पाने के उपाय खोजने चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद