ईश्वरीय बैंक
मनुष्य जो भी सत्कर्म अथवा दुष्कर्म करता है, वे सभी उसके बैंक खाते में जमा हो जाते हैं। यह ईश्वर द्वारा खोला गया बैंक है। हम सभी बैंकिंग प्रक्रिया से भली भाँति परिचित हैं। हमने अपने अकाउण्ट कई बैंकों में खोले हुए हैं। जितना धन हम जमा करवाते हैं वह हमें ब्याज जोड़कर यानी अधिक होकर मिलता है। जितना धन हम निकाल लेते हैं, उतना धन हमारे खाते से कम हो जाता है। उस पर हमें कोई ब्याज नहीं मिलता।
ईश्वरीय बैंक में भी बिल्कुल ऐसा ही होता है। उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि भागवान जी के कम्पयूटर बिल्कुल परफेक्ट है, उसमे किसी प्रकार गलती की कोई गुंजाइश ही नहीं होती। हर जन्म में जितने भी कर्म जीव करते हैं, वे सब बैंक के उनके खाते में जमा हो जाते हैं। जिन-जिन अच्छे या बुरे कर्मों का फल हम भोग लेते हैं, वे हमारे खाते से कम हो जाते हैं। जो पूर्वजन्म कृत कर्म खाते में जमा रहते हैं उन्हें प्रारब्ध कर्म कहते हैं। ये तीन तरह के होते है - मन्द, तीव्र और तीव्रतम।
कुछ विद्वानों का मानना है मन्द प्रारब्ध ईश्वर का नाम सच्चे मन से जपने से कट जाते हैं। तीव्र प्रारब्ध कर्म सच्चे सन्तों का संग करके श्रद्धा और विश्वास से प्रभु का नाम जपने पर कट जाते है। तीव्रतम प्रारब्ध कर्म भुगतने ही पड़ते हैं।
एक बोध कथा के माध्यम से इस रहस्य को समझने का प्रयास करते हैं। एक बुजुर्ग गुरुजी हमेशा ईश्वर के नाम का स्मरण किया करते थे। कुछ शिष्य उनके ही साथ पास वाले कमरे में रहते थे। जब भी उन्हें शौच अथवा स्नान आदि के लिए जाना होता, वे शिष्यों को आवाज लगाते थे। शिष्य आते और इन कार्यों के लिए उन्हे ले जाते। कुछ दिन बाद शिष्य दो-तीन बार आवाज लगाने के बाद आते और कभी देर से आते।
एक दिन रात को निवृत्त होने के लिए जैसे ही उन्होंने आवाज लगाई तुरन्त ही एक बालक आकर बडे ही कोमल स्पर्श के साथ उन्हें निवृत्त करवा कर बिस्तर पर लिटा जाता है। अब यह प्रतिदिन का नियम बन गया ।
एक दिन गुरुजी को शक हुआ कि पहले शिष्यों को तीन-चार बार आवाज लगाने पर भी देर से आते थे। किन्तु यह बालक तो आवाज लगाते ही तत्क्षण आ जाता है। बडे कोमल स्पर्श से निवृत्त करवाता है।
एक दिन उन्होंने उस बालक का हाथ पकड लिया और पूछा - 'सच बता तू कौन है? मेरे शिष्य तो ऐसे नही हैं।'
उस बालक के रूप में स्वयं ईश्वर थे। उन्होंने गुरुजी को अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया।
गुरुजी ने रोते हुए कहा - 'हे प्रभु, आप स्वयं मेरे निवृत्ति के कार्य कर रहे है। यदि मुझसे इतने प्रसन्न हैं तो मुक्ति ही दे दो।'
प्रभु कहते है - 'जो आप भुगत रहे है वे आपके प्रारब्ध कर्म हैं। आप मेरे सच्चे भक्त हैं, हर समय मेरा जप करते है इसलिए मैं आपके प्रारब्ध कर्मों को आपकी सच्ची साधना के कारण स्वयं कटवा रहा हूँ।'
गुरु कहते हैं - 'प्रभु, क्या मेरे प्रारब्ध आपकी कृपा से भी बड़े हैं? क्या आपकी कृपा मेरे प्रारब्ध नहीं काट सकती?'
प्रभु ने उत्तर दिया - 'निस्सन्देह मेरी कृपा सर्वोपरि है और वह प्रारब्ध भी काट देती है किन्तु आपको बचे हुए इन कर्मों को भोगने के लिए फिर से एक और जन्म लेना पड़ेगा।'
यही कर्म का नियम है। इसलिए मैं आपके प्रारब्ध कर्म स्वयं अपने हाथो से कटवाकर इस जन्म-मरण से आपको मुक्ति देना चाहता हूँ।
इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि विद्वान चाहे कुछ भी कहें पर अपने किए सभी कर्मों का फल जीव को भोगना ही पड़ता है। वह कितना भी रोए-धोए, उसे इनसे मुक्ति नहीं मिल सकती। तुलसीदास जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है -
प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर।
तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्री रघुबीर॥
अर्थात् मनुष्य का शरीर बाद में बनता है परन्तु उसका भाग्य उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार पहले लिख दिया जाता है।
अपने कर्मों की शुचिता पर हर मनुष्य को ध्यान देना चाहिए। मनुष्य जीवन कर्म करने के लिए मिलता है, शेष सभी योनियाँ भोगयोनि कहलाती हैं। वहाँ कर्म नहीं किए जाते बल्कि अपने कर्मों का फल भोगना होता है। इसीलिए मनीषी मानव योनि को सर्वश्रेष्ठ योनि कहते हैं। मानव तन पाकर मनुष्य को सावधान रहकर शुभ कर्मों का संग्रह करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद