अन्धेरे से डर
अन्धकार से बच्चों को ही नहीं बड़ों को भी डर लगता है। कहने और सुनने में भले ही हमें विचित्र लगे परन्तु यह सच्चाई भी है और वास्तविकता भी। बचपन से ही मनुष्य अन्धेरे से डरने लगता है। बच्चे को यदि अन्धेरे में जाने के लिए कहा जाए तो वह साफ इन्कार कर देता है। यदि गलती से कहीं अन्धेरे का उसे सामना करना पड़े तो वह चीख-पुकार मचता है। अपने घर के सभी सदस्यों को रोते हुए पुकारता है। उसे लगता है कि कोई आ जाएगा और उसे उस अन्धकार से मुक्ति मिल जाएगी।
बड़े होने के बाद भी कुछ लोगों के मन से बचपन का बैठा हुआ ये डर निकल नहीं पाता। वे बड़े होने के बाद भी अन्धेरे से डरते हैं। उससे लड़ने का कभी प्रयास नहीं करते। उन्हें यह कहते हुए जरा भी झिझक नहीं होती कि उन्हें अन्धेरे में जाने से दर लगता है। वे सदा किसी ऐसे साथी की तलाश में रहते हैं जो उन्हें अन्धकार के उस डर से बचा सके। उसकी सहायता ले करके वे अपना कार्य पूर्ण करने का प्रयत्न करते हैं।
मनुष्य जब इस असार संसार में जन्म लेता है, उस समय उसे अन्धकार से बाहर निकालकर आना होता है। माँ के गर्भ में नौ मास तक वह अन्धेरे में व्यतीत करता है। उस वातावरण से घबराकर वह ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उसे अन्धकार से मुक्त करे। बच्चा जब जन्म लेता है तब उसके पश्चात शायद यही कारण हो सकता है कि वह अन्धकार से डरता है। उससे छुटकारा पाने के लिए रोता है।
बड़े होने के बाद धीरे-धीरे मनुष्य का यह डर कम होने लगता है। फिर उसके जीवन में एक दिन ऐसा भी आता है जब वह उस डर को अपने वश में करके, उस पर विजय प्राप्त कर लेता है। तब वह अपने बन्धु-बान्धवों को या अपने आने वाली पीढ़ी को उस डर को अपने मन से बाहर निकाल फैंकने का परामर्श देता है।
अन्धेरा केवल उसी स्थान पर नहीं होता जहाँ प्रकाश का आभाव होता है। अपितु मनुष्य अपना सारा जीवन अपने अन्धेरों से लड़ने में व्यतीत करता हैं। बिमारी-हारी, पराजय, दुःख-परेशानियाँ, व्यापर आदि में हानि, सन्तानहीन होना या अधिक सन्तान होना, घर-परिवार या बच्चों की चिन्ता आदि के अतिरिक्त प्राकृतिक आपदाओं अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओलावृष्टि, भूकम्प, बाढ़, लेण्ड स्लाइड होना, जंगलों में आग लगना, आँधी-तूफान आना भी मनुष्य के लिए अन्धकार के ही प्रतीक कहे जा सकते हैं। उन असहनीय स्थितियों से उभरने में उसे बहुत ही कष्टों का सामना करना पड़ता है।
जब ऐसी मानवीय अथवा प्राकृतिक आपदाओं से मनुष्य को जूझना पड़ता है तब उसे नानी याद आती है। उस समय उसे प्रतीत होता है कि वह अन्धेरों की ऐसी गुफाओं में खो गया है, जहाँ से उसकी मुक्ति असम्भव है। मनुष्य को आशा रूपी प्रकाश का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। रात कितनी भी गहरी काली हो उसे समाप्त होना ही होता है। इसी तरह बादल कितने ही घने काले हों, कितना भी अन्धेरा कर ले, उन्हें बरसकर अन्यत्र जाना ही होता है और उजाला करना पड़ता है।
मनुष्य यह भूल जाता है कि अन्धेरे के बाद ही प्रकाश का आनन्द लिया जा सकता हैं। उजाले का मूल्य मनुष्य को तभी ज्ञात हो सकता हैं जब वह अन्धकार के दारुण दुखों से दो-चार हो जाता है। मनुष्य को इन सभी अन्धेरों से बाहर निकलने का मार्ग स्वयं ही खोजना होता है। जब तक वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो जाता, तब तक वह उनसे मुक्त नहीं हो सकता। वह इन अन्धेरों से डरता हुआ सदा इधर-उधर भटकता रहता है।
मनुष्य यदि वास्तव में अपने इन अन्धेरों के डर से ऊपर उठना चाहता है तो उसे आत्मचिन्तन करना चाहिए, सज्जनों की संगति करनी चाहिए, सद् ग्रन्थो का परायण करना चाहिए और ईश्वर की आराधना करनी चहिए।
चन्द्र प्रभा सूद