✍🏻कुछ ना कह सका✍🏻
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भौतिकवाद की घुटन।
मंहगाई की लुटन।
राजनैतिक ऊहापोह।
मिथकों के अदृश्य धागे।
ऊलझे रिश्तों की छटपटाहट।
सन्तानों के विद्रोही स्वर।
धुँआ-धुँआ वैचारिक गगन।
प्रेम ,प्यार ,इन्तजार की
अनुभूति।
जिन्दगी का जहर,
विधवा का अवसाद।
तहखानों में डूबा सूरज,
चूल्हें की राख सी चान्दनी,
दरोगा का निछावर दिल,
सेठ धनपत की बही,
रामसरूप का कर्ज।
लाली का बोझ बस्ता,
अंधे बैल का बेदर्द जुआ,
धुर्त आँखों के वहसी मानव।
हकीकतों से हैरान करती
गुंगी कविता से
कुछ ना कह सका,
कलम की स्याही के
कोलाहल से भी
कुछ ना हो सका।।
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गोविन्द सिंह
2-8-17