क्या ब्यावर सचमुच लावारिस है❓
फरवरी 1836 ई. में नये शहर की स्थापना हेतू वर्तमान अजमेरी गेट पर स्थापना शिला रखी।नया शहर को आज ब्यावर के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है।लगभग 181 वर्ष देख चुका ब्यावर संयुक्त अजमेर मेरवाड़ा स्टेट कमिश्नरी राज भी देखा और स्वतंत्र भारत की राजनीति के षड़यंत्रों का भी साक्षी रहा है।अपने महत्व के कारण कई हासिल करते हुऐ आसमान की ऊँचाईया भी देखी। नवम्बर 1956ई. में ब्यावर प्रदेश का सबसे बड़ा उपखण्ड बना।राजस्थान प्रदेश में मिलाते समय अजमेर को जिले के साथ राजधानी तथा मेरवाड़ा अर्थात ब्यावर को जिला बनाना तय हुआ था।
इसी मसौदे के तहत अजमेर मेरवाड़ा(ब्यावर) को राजस्थान राज्य में मिलाने की रजामन्दी दी थी। तब से लेकर आज तक स्वतंत्र पार्टी, कांग्रेस व भाजपा के शासन काल में जनता के अधिकारों पर ,जिला बनाने की मांग पर कुठाराघात होता रहा। आर्थिक रूप से सुदृड़ महाजन वर्ग ने कभी भी इस मांग का खुलकर समर्थन नहीं किया। वसुन्धरा सरकार से इस बार आशा थी कि बजट में ब्यावर जिले की घोषणा होगी।वह नहीं हुई।पूरे क्षेत्र में मायूसी पसर गई।तत्कालिन मुख्यमंत्री भैरो सिंह शैखावत के समय से रावत जातिय समुदाय के खिलाफ प्रारम्भ हुई षड़यंत्र की ,छल कपट की कहानी वर्तमान में भी चल रही है। राजनेताओं को तो अपनी कुर्सी प्यारी है।
पाँच साल प्यारे है।मगरा सो रहा है।काँग्रेस और बीजेपी में बँटा समुदाय और महत्वाकांशा में फसे लोग उच्च स्तर से नाराजगी नहीं लेना चाहते है। रावत समुदाय को एक होने से रोकने के लिऐ ब्यावर को जिला नही बनाया जा रहा है। मोहनलाल सुखाड़िया से लेकर वर्तमान मुख्यमंत्री तक सभी राजनेता और विधायक व गरीब ग्रामिण जनता इस शहर को जिला नहीं बनवा सके हैं। कहने को तो रावत समुदाय मार्शल कौम है ।परन्तू अपने अधिकारों की मांग पर हमेशा अपनों से ,अपने ही राजनेताओं से छली गई है।बड़े जन आन्दोलन के लिऐ एक अदद नेतृत्व तक हमारे पास नही हैं। लगातार पतन को झेल रहे लावारिस शहर के क्षेत्र की जनता कब जागेगी ,कहना मुस्किल है। अगले चूनावों में इसका जवाब लोकतान्त्रिक भाषा में देने के लिऐ सभी क्षेत्रीय संगठनों को कांग्रेस - बीजेपी से ऊपर उठ कर सोचना चाहिये। गोविन्द सिंह "सुरेन्द्र"