मेरा गाँव है यह!
देखता रहा हूँ मैं ,कि यहा्ं
घटाएं आती है-
उमड़ती,घुमड़ती,बरसती है
पर्वत,वन प्रान्तर
चिड़ियों की चहचाहट से,
मोरों की 'टिहूक' और
कोयलों की 'कूहू' से
गुँजरित रहते है।
फूल हँसते ,भौंरे गाते भ्रूँ भ्रूँ !
और देखता हूँ जहाँ मैं
पीपल,नीम की छाह तले
भारत की नंगधड़ंग ,भावी
होनहार पीढ़ी को
खेलते,गुनगुनाते!
यों बहुत कुछ है मेरे गाँव में
किन्तु एक राज की बात कह दूँ?
चुपके से कहूँगा मैं
कि उड़ते पल्लू
मिट्टी सने बालों वाली
खेतों में खटती औरतों झुण्ड
ढ़ोर-डांगरों को चरा
गोधुली बेला में
थकी मांदी ,लटके चहरे लिऐ
आते है घर
और मेरे गाँव के
तथाकथित मर्द
चौपालों पर बैठे दिनभर
गप्पे हाँकते है।
शाम को शराब पीते हैं।
फिर रात को आवाजें
आती है घरों से
एक दहाड़ने की
दूसरी रोने ,चिखने,चिल्लाने,
गिगियाने की।
बच्चे जनने,वंश बढाने,
घर सम्भालने वाली औरतों द्वारा
मद छकिये अपने पति परमेश्वर की
वासना पूरी करना।
आँचल में दूध,आँखों में पानी लिऐ
औरतों की यही कहानी है।
पग की जूती फट जायेगी
दूसरी बन जायेगी।
एक मरी तो दूसरी
आ जायेगीं।
दूसरी औरत मरी तो
तीसरी आ जायेगी
अन्दर ही अन्दर घुटता है
सिसकता है मेरा गाँव।
रात भर रोता है
सुबह हँसता है मेरा गाँव।
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गोविन्द सिंह "सुरेन्द्र"