shabd-logo

अ‍ध्याय‌‌-१ - राखी

23 अप्रैल 2022

58 बार देखा गया 58

कहते है प्रेम की कोई भाषा नही होती। दुनिया के हर देश में हर शहर में हर गली में प्रेम की बस एक ही भाषा है और वो है मन की भाषा। इसको समझने के लिये आपको किसी भाषा विशेष की जानकारी होना आवश्यक नही है। इसे कहने के लिये ना तो अपको अपने होट हिलाने की जरूरत है और ना ही समझने के लिये किसी अनुवादक की आवश्यक्ता होती है। ये तो चाहने वालों के हाव-भाव से ही समझ में आ जाता है। जब भी कोई दो लोग प्रेम में होते है तो ये बात उनके आस पास के लोगों से छुपी नही रह सकती। हाँ मगर ये मुमकिन है की उन दोनों को ये बात समझने मे थोडा समय लग जाये। प्रेम की एक और खास बात यह है कि इसके लिये उम्र की कोई सीमा तय नही है ये किसी को भी कभी भी कहीं भी हो सकता है। कूल मिलाकर प्रेम मे पडने वालो के लिये उम्र, भाषा, संस्कृती,स्थान  कुछ भी मायने नहीं रखता। बस एक ही बात मायने रखता है वो यह कि जिसे हम चहते है क्या वो भी हमें चाहता है। इस पुरे संसार मे एक भी मनुष्य ऐसा नहीं मौजुद जो कभी प्रेम में ना पडा हो। कभी-ना-कभी कहीं-ना-कहीं किसी-ना-किसी से हरेक व्यक्ति को प्रेम जरूर हुआ होता है। कुछ का प्रेम सफल हो जाता है तो कुछ लोगों का सफल नही हो पाता। कुछ ऐसे होते है जो खुल कर इस विषय पर बात करते हैं और कुछ अपने ज़ज़्बात अपने अंदर ही दबा कर रखना सीख जाते है। मगर प्रेम करते तो सब है। कुछ लोग प्रेम करके शादी करते है तो कुछ लोग शादी के बाद प्रेम करते है। कुछ लोगों को शादी के बाद सच्चा प्रेम मिलता है तो कुछ को शादी के बाद सच्चा प्रेम हो जाता है। मगर प्रेम का हर रुप पवित्र होता है फिर चाहे वो किसी भी उम्र मे हो किसी भी स्थान मे हो किसी भी व्यक्ती से हो ये हमेशा साफ और पवित्र होता है।

उपर मैंने प्रेम की परिभाषा देने की असफल कोशिश कर ली। पता नहीं सफल हुआ या नहीं मगर ये सच है की मै अपने निजी जीवन मे कभी भी सच्चा प्यार पाने मे सफल नही रहा। मेरे जीवन मे ऐसे कई मोड आये जब मुझे लगा कि मैं
प्रेम में हूँ और हर बार मैं पुरी तरह से इस प्रेम के प्रति इमानदार भी रहा मगर इसके साथ मेरा आंकडा छत्तिस का ही रहा। हर बार मुझे इसमे असफलता ही प्राप्त हुई। हर बार बात बनते बनते रह गयी। कभी मैंने देर कर दी तो कभी मैं ज़ल्दबाजी कर गया। हर बार मेरा प्यार भी सच्चा था और सामने वाले की ना की वजह भी सही थी। ना तो मैंने कभी धोखा खाया और ना ही दिया। मतलब बेवफाइ वाला चक्कर कभी भी रहा ही नहीं, ना तो मेरी तरफ से और नाहीं सामने वाले की तरफ पर हर बार मेरा प्यार पुरा ना हो पाया। मैंने अपने जीवन में तीन बार प्यार किया, और टूट कर किया। प्यार करने के मामले मे मैं हमेशा से अव्वल ही रहा मगर प्यार पाने में हमेशा फिस्सड्डी मान सकते है। चलो भुमिका बहुत हो गयी हो सकता है शायद मैं आपको बोर भी कर रहा हूँ मगर जब तक मैं दिल खोल नहीं लेता कहानी कैसे कहुंगा। ये सब कुछ लिखते हुए मुझे ऐसा
नहीं लग रहा की मैं कोई कहानी या क़िताब लिख रहा हूँ बल्कि मुझे लग रहा है कि जैसे मैं अपने किसे जिगरी यार को अपने दिल का हाल सुना रहा हूँ। तो ज़नाब जरा सब्र रखना और सुन लेना क्युंकि पता नहीं मैं फिर कभी इतनी हिम्मत जुटा पाऊं या नहीं। तो आप सभी का स्वागत है मेरे पहले पहले असफल प्यार की कहानी में।

साल १९९६, मई का महिना था। मैं उस समय कक्षा ६ में पढता था। हम इस मोहल्ले मे नये-नये आये थे। मेरे परिवार ने पिछले दिनों ही इस मोहल्ले मे नया मकान बनवाया था। मेरे घर मे मेरी मां और दो बडे भाई थे। मां ने अपनी मेहनत और बडे भाइयों की कमाई से ये मकान बनवाया था। मैं अपने घर का सबसे छोटा बच्चा था। आज भी हूँ, इन लोगों ने कभी मुझकोबडा होने का मौका हीं नही दिया। तो जिस दिन हमारा गृह प्रवेश हुआ उसके अगले दिन से ही हमारे घर की चर्चा मुहल्ले मे होने लगी थी। ये एक छोटा सा मोहल्ला था जो अभी पुरी तरह से बसा भी नही था। चारो तरफ खुला मैदान। एक घर से दुसरे घर की दूरी लगभग १००-२०० मिटर की तो होती ही थी मगर इतना खुला और साफ वातावरण के होने के कारण इतनी दूर से भी लोग एक दुसरे से असानी से बात कर सकते थे। किसके घर के बाहर क्या हो रहा है ये जान पाना मुश्किल नही था। बात आज से लगभग २५ साल पहले की है तो आप उस समय की हरियाली और आबोहवा का अनुमान लगा ही सकते है। यहाँ के लोग मिलन सार थे और मेरे उम्र के बच्चों की भरमार थी। बस एक बात थी जो मुझे वहां के बाकी सभी बच्चों से अलग करती थी और वो थी उनकी भाषा। यहाँ सभी बंगाली थे और मैं एक बिहारी परिवार से आता हूँ। हालांकी मेरा आज तक कभी भी गांव से कोइ वास्ता नही पडा। मेरी पढाई-लिखाई, रहन-सहन, खान-पान सब कुछ यहाँ के बासिंदों की तरह ही था मगर आपकी मातृ भाषा आपके पहचान को छुपने नहीं देती। यहाँ एक बात बता दूं मैं की मुझे अपने देसी भाषा पर बहुत गर्व है। मैं पला बढा यही हूँ तो उनकी भाषा भी इतनी सरलता से बोलता और समझता हूँ की कोई भी अंजान व्यक्ति एक बार मे तो समझ ही नहीं सकता की मैं बिहारी हूँ या बंगाली। मगर आप चाहे जितना भी कोशिश कर लें अपनी भाषा में आप जितना सहज रहते है पराये भाषा मे आपसे कोई ना कोई गलती तो हो हीं जाती है।  मैं यहाँ और यहाँ के लोगों के लिये नया था और वो लोग मेरे लिये नये थे। बच्चों की खास बात ये होती है कि वो झट दोस्त बना लेते है। मैं शुरु से ही मिलनसार रहा हूँ क्युंकि मेरे घर मे सब लोग खुश्मिज़ाज और मिलनसार थे तो मेरी ये प्रवृत्ति उन्ही लोगों के बदौलत है। दो-तीन दिनों मे ही मैने मोहल्ले मे कई दोस्त बना लिये थे। लडके मेरे दोस्त जल्दी बन जाते थे। वैसे तो मेरी पढाई शुरु से ही मिश्रित स्कूल से हुई थी मगर लडकियों से दोस्ती के नाम पर मेरे पास कभी भी कोइ दोस्त नही रही। अब जब की मैं छठवी कक्षा मे पढने लगा था और मेरे उमर के लडके और लडकियों (खास करके बंगाल के लडके और लडकियां जो की कम उम्र में ही प्रेम प्रसंग मे पड जाते है) उनके कई विपरीत लिंग के साथी हुआ करते थे,  तो मुझे ये बात खलने लगी। इस उमर के बच्चे आपस मे कई तरह से बातें करते है। एक दुसरे के प्रती आकर्षित होने का यही समय होता है। यह वो समय होता है जब हम असल में एक दुसरे को शारिरीक बनावट के आधर पर अलग समझना शुरू करते है। और अंतर समझने का यही ज्ञान हमे एक दुसरे के प्रती आकर्षित करने लगता है। वो कहते है ना की हर गुच्छे मे एक अंगूर ऐसा जरूर होता है जो औरों से आकार और संरचना मे थोडा ज्यादा होता है।  उसी तरह बच्चों की हर टोली मे एक ऐसा बडा बच्चा होता है जो अपनी उमर से ज्यादा ज्ञानी होता है मगर ये ज्ञान बहकने वाला होता है। ये बात अभी इस लिये कही क्युंकी हमारे टोली मे भी एक बच्चा था जिसे हम दादा कहते थे( बंगाली मे बडे भाई)।

तो मेरे दोस्तों के झुण्ड मे वो बडा भाइ था बुबाई दा। कम से कम पहले दिन तो उसे मैने दा ( बडे भाई) कहकर हीं पुकारा था। पर जैसे ही मुझे पता चला कि वो पिछले दो सालों से छठवी मे ही अटका हुआ है तो मेरे नज़र मे वो झट से गिर गया। फिर उसे मैं उसके पहले नाम से ही बुलाने लगा था। हमारे मुहल्ले मे लगभग ४० बच्चे थे जिनमे लडके और लडकियों की संख्या लगभग बराबर ही थी। उनमे से जितने भी मेरी उम्र के थे सब एक ही कक्षा मे पढ रहे थे तो इस राज्य के पाठ्यक्रम के अनुसार पहली भाषा को छोड कर हर किताब एक जैसी ही थी बस भाषा अलग थी। हर शाम को सब बच्चे मैदान मे खेलने के आते थे। हर घर का बच्चा वहाँ मौजुद होता था। चाहे लड्का हो या लडकी सब ईकट्ठे खेलते थे। यही पर मुझे पहले बार मेरे ज़िंदगी का पहला प्यार मिलने वाला था। रोज़ की तरह मैं और मेरे दोस्त मैदान मे खेल रहे थे हमे क्रिकेट खेलना बहुत पसंद था। यही एक मात्र खेल भी था जिसे सभी मजे खेलते थे। मैं फिल्डिंग कर रहा था बाप्पा बैटिंग कर रहा था। बुबाई ने गेंद फेंका बाप्पा ने बैट घुमाया और गेंद सीधे मेरे पैरों के बीच से निकल कर मैदान के बाहर स्थित हैंड पम्प से जा लगा। मैं अपनी धुन मे भागा जा रहा था जब वहां पहूंचा तो देखा एक लडकी गेंद अपने हाँथों मे लिये खडी है। वो वहां पानी भरने आयी थी और गेंद उसके बाल्टी मे जा गीरी थी। गुस्से मे लाल वो बंगाली में बडबडाये जा रही थी। “

খেলার সময় দেখা যায় না? এই নোংরা বল আমার বালতিতে পড়েছে। বালতির সব জল ফেলে দিয়ে আবার ধুতে হবে।আপনি কি অন্ধ?

मुझे बात थोडी देर मे समझ आयी की वो बाप्पा को बोल रही थी। उसे देखते ही बाप्पा वहां से चम्पत हो गया। मैने गेंद मांगा तो उसने गेंद दुसरी तरफ फेंक दिया। (उस वक़्त मेरे मन मे उसके लिये ना तो कोई गुस्सा जागा और ना ही कोई आकर्षण पर आज जब भी कभी वो दिन याद आता है तो मैं उसे अब भी उसी नल पर खडा पाता हूँ। हरे रंग की फ्राक पहन रखी थी उसने। घूंघराले बाल, बडी-बडी आंखे, मद्धीम रंग और चेहरे पर गुस्सा)। इससे पहले की मैं कुछ समझ पाता उसने चीख कर अपनी मां को बुला लिया। एक पल मे मेरे सारे दोस्त जैसे हवा हो गये। मैं नया था तो कुछ भी समझ नही पाया। पीछे पलटा तो देखा एक औसत कद काठी की औरत उसकी तरफ बढती जा रही थी। अगले ही पल वो दोनो बाप्पा के दरवाजे पर थे, लडकी की मां लडके के मां से लडने लगी थी। उधर उन दोनो घर मे झगरे होने लगे और इधर हम सब मिलकर फिर से खेलने लगे। उस दिन ना मैंने उसे जाना और ना उसने मुझे जाना। जानना तो दूर हम दोनो मे बात तक नही हूई थी। जब शाम का खेल खत्म हुआ और सब घर जाने लगे तो बुबाई ने बाप्पा को कहा की अबके बार तो बच गया भाई अगर उसका बाप आया होता तो तेरी कुटाई निश्चित थी। बातों-बातों मे पता चला की उसका बाप रिक्शा चलाता है और मां घर मे ही कुछ-ना-कुछ काम करती है। उसका एक छोटा भाई भी है और सब के सब बडे खडुस और झगरालु किस्म के लोग है। जैसे हीं हम अलग हुए ये बात आई गयी हो गयी। खेल की बातें खेल मे ही खत्म हो गई। उस उमर मे बातें याद रखने की ना ही आदत होती और ना ही ज़रूरत। वैसे भी उसके घर के लोगों से पुरा मुहल्ला दूर ही रहना पसंद करता था। कौन बीना बात के झगरा मोल लेना चहता है।

 समय बीताता गया और हम सब बडे होते गये। जब हमारे उमर के बच्चे( उस समय) बडे हो रहे होते है ना हममे शारिरिक और मानसिक बदलाव भी हो रहा होता है। चौदह साल के उमर मे लडके लडकियों का आपस मे आकर्षण होना साधारण
बात है। हम अपने आप के बदलावों और अपने दोस्तो के बदलावो के साक्षी होते है। पहले जिन लडकियों के संग बात करने का मन नही होता था अब उनसे बात करने मे शर्म और डर दोनों होता था। बीते कुछ दिनों मे हम सब लडकों के लम्बाई मे इज़ाफा हुआ था और लडकियों के भी शारिर मे बदलाव साफ दिखता था। खेलते-खेलते हम कब छठवी से आठवी मे आ
गये थे पता ही नहीं चला। समय इस गती से बीता की हम बच्चे से बडे हो गये। अब हम उम्र के उस पडाव में थे जब सही और गलत को समझना और उनमे से एक का चयन करना असान अन्हीं होता। फिर अगर आप बंगाल मे हो तो यहाँ के बात कुछ और ही होती है। यहाँ लडकिया(चाहे वो मूलत:‌ बंगाली हो या गैर बंगाली) १२ के मर से ही प्रेम मे पडने लगती है।
कितनो की तो १५ की उमर मे शादी तक हो जाती है। यहाँ प्रेम विवाह का चलन है। भाग कर शादी कर लेना और बाद मे मां बाप का उसे स्वीकार कर लेना कोइ बहुत बडी बात नही है। यहाँ के हवा और पाने मे प्रेम विवाह रचा बसा है। आप इसे ऐसे समझिये की आज जिस लडकी ने खुद अपने घरवालों से बगावत करके भाग कर प्रेम विवाह किया हो वो अपने बेटी को
ऐसा करने से कैसे रोक सकती है। लडके भी यहाँ के उमर के पहले ही जवान हो जाते है। कालेज तो बहुत दूर है, भाई साहब यहाँ के लडके स्कूल से ही लडकियां भगाकर ले जाते है। हालांकि मैं बीहारी परिवर से था मगर जनम करम जब यहाँ है तो मैं इसके प्रभाव से कैसे बच सकता था। पुरे भारत मे प्रेम उत्सव १४ फर्वरी को मनाया जाता है मगर क्या आप जानते है कि एक मात्र बंगाल ही भारत का ऐसा राज्य है जहाँ प्रेम उत्सव सरस्वती पूजा के दिन मनाया जाता है। इस दिन यहाँ के सभी लडकिया, चाहे वो प्राइमरी सकूल की हो या डिग्री कालेज की, सारी पहनती है। ये एक तरह की परम्परा रही है यहाँ की। हर घर से एक सरस्वती बाहर निकलती है। उस दिन कच्चे हल्दी से नहाना और साडी पहनना जैसे कोई दैविय आदेश हो। अब जरा सोचिये जिस लडकी को आप रोज़ आम्कपडो मे देखते है उसे अचानक सारी मे देखकर कैसा लगेगा। आंखें चमक जाती है और दिल हिच्कोले खाने लगता है। मैं भी इससे अछुता तो नही रह सका पर मेरा भाग्य देखिये नज़र भी उसी पर पडी जिसपर मेरे पहले मुहल्ले के सारे लडके किस्मत आजमा चुके थे।  


मीनू द्विवेदी वैदेही

मीनू द्विवेदी वैदेही

बहुत सुंदर लिखा है आपने अमन जी 👌👌 आप मेरी कहानी प्रतिउतर पर अपनी समीक्षा जरूर दें 🙏

14 दिसम्बर 2023

1
रचनाएँ
तीन कहानियाँ
0.0
कहते है प्रेम की कोई भाषा नही होती। दुनिया के हर देश में हर शहर में हर गली में प्रेम की बस एक ही भाषा है और वो है मन की भाषा। इसको समझने के लिये आपको किसी भाषा विशेष की जानकारी होना आवश्यक नही है। इसे कहने के लिये ना तो अपको अपने होट हिलाने की जरूरत है और ना ही समझने के लिये किसी अनुवादक की आवश्यक्ता होती है। ये तो चाहने वालों के हाव-भाव से ही समझ में आ जाता है। जब भी कोई दो लोग प्रेम में होते है तो ये बात उनके आस पास के लोगों से छुपी नही रह सकती। हाँ मगर ये मुमकिन है की उन दोनों को ये बात समझने मे थोडा समय लग जाये। प्रेम की एक और खास बात यह है कि इसके लिये उम्र की कोई सीमा तय नही है ये किसी को भी कभी भी कहीं भी हो सकता है। कूल मिलाकर प्रेम मे पडने वालो के लिये उम्र, भाषा, संस्कृती,स्थान कुछ भी मायने नहीं रखता। बस एक ही बात मायने रखता है वो यह कि जिसे हम चहते है क्या वो भी हमें चाहता है। इस पुरे संसार मे एक भी मनुष्य ऐसा नहीं मौजुद जो कभी प्रेम में ना पडा हो। कभी-ना-कभी कहीं-ना-कहीं किसी-ना-किसी से हरेक व्यक्ति को प्रेम जरूर हुआ होता है। कुछ का प्रेम सफल हो जाता है तो कुछ लोगों का सफल नही हो पाता। कुछ ऐसे होते है जो खुल कर इस विषय पर बात करते हैं और कुछ अपने ज़ज़्बात अपने अंदर ही दबा कर रखना सीख जाते है। मगर प्रेम करते तो सब है। कुछ लोग प्रेम करके शादी करते है तो कुछ लोग शादी के बाद प्रेम करते है। कुछ लोगों को शादी के बाद सच्चा प्रेम मिलता है तो कुछ को शादी के बाद सच्चा प्रेम हो जाता है। मगर प्रेम का हर रुप पवित्र होता है फिर चाहे वो किसी भी उम्र मे हो किसी भी स्थान मे हो किसी भी व्यक्ती से हो ये हमेशा साफ और पवित्र होता है।

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए