जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं ।उसी प्रकार जो बात अभिशाप है, वह किसी के लिए वरदान भी साबित होती है। शहरों में एक अच्छी बात यह भी है कि कोई किसी से मतलब नहीं रखता । तो मेरा उनके घर आना जाना, छोटे कस्बाई शहरों की तरह अभी तक कानाफूसी का कारण नहीं बना था। अब अक्सर वह मुझे छुट्टियों मे खाने पर बुला लेती या रात को मैं बाहर से कुछ लेकर उनके घर पर ले जाता और हम दोनों साथ में खा लेते। जो भी हो सच कहूँगा, मैं यह कह कर कि उनमें मुझे अपनी माँ का स्वरूप दिखता था, मैं ना उनकी ना मेरी भावनाओं का अपमान नहीं करुँगा । हमारे बीच में सिर्फ एक अकेलेपन का, दोस्ती का रिश्ता था । जिसकी अपनी मर्यादा थी । पर हाँ अब अक्सर शनिवार, इतवार को हम बाहर घूमने चले जाते, मंदिर, फिल्म, नाटक, समुद्र के किनारे, पहाड़ों पर, कहीं पर भी । उनके पास अतीत की बहुत सारी बातें थी । वह बताती रहती, मैं सुनता रहता।
उनकी इन्हीं बातों से मुझे उनके बारे में थोड़ा थोड़ा पता चला कि शादी के ढ़ाई साल बाद ही उनके पति की डेंगू से मौत हो गई थी । कोई बच्चा भी नहीं है। वह बहुत ही अमीर परिवार की बहू हैं। पति की मृत्यु के बाद भी सब ठीक ही जा रहा था । उम्र कम थी। सास ससुर ने दूसरी शादी की पेशकश भी की पर मायके वाले (उन्हें सही कहूँ या गलत यह तो वह भी कभी समझ नहीं पाई) बोले, शादी मत करना । दूसरी शादी करोगी तो यह सब जायदाद तुम्हें छोड़नी पड़ेगी । फिर तुम्हें इसमें कुछ भी हिस्सा नहीं मिलेगा। यह लोग तो चाहते ही हैं कि तुम्हारी शादी हो जाए तो तुम्हारे पति के नाम की सॉरी जमीन जायदाद उनके नाम हो जाएँ। संयुक्त परिवार में वास्तव में तो पति के नाम पर कुछ भी नहीं था पर फिर भी उनके पति एक होटल चलाते थे । मायके वाले चाहते थे वह होटल अब उनके नाम पर हो जाए। ससुराल वाले इस बात के लिए तैयार नहीं थे । उनका कहना था यह परिवार का व्यवसाय है किसी एक के नाम पर नहीं लिख सकते। तुम्हें संभालना हो तो तुम संभालो जैसे पहले शिरीष (उनके पति) संभालता था।
खैर वह आधी बातें बताती आधी में यादों में खो जाती। मैं उन्हें खोद खोदकर पूछ भी नहीं पाता। कभी उन्हें लगता शायद उनके ससुराल वाले सहीं थे पर मायके वाले भी गलत कैसे हो सकते हैं ? वह तो हमेशा उनका भला ही चाहेंगे। वह अपनी कशमकश में डूबती उतराती। वह अपने मन को दिलासा देती कि वर्षों पहले लिया गया निर्णय सही था। उनके शब्दों में वैसे भी विधवा को दूसरी शादी के बाद भी सुकून की जिन्दगी मिलें जरुरी तो नहीं। कम से कम मैं आज की तरह आजाद जिन्दगी नहीं जी पाती। कोई किचकिच खिचखिच नहीं। मज़ा नी लाइफ ।
पर उनकी बातों से आती खालीपन की, उदासी की तरंगों को कोई भी महसूस कर सकता था। क्या उन्हाेंने कोई आवरण ओढ़ रखा था या उन्हें एक आवारण ओढ़ा दिया गया था। मैं सोचता शायद आज के लगभग तीस साल पहले के समाज में ऐसा ही होता होगा। यहीं उनके परिवार वालों को सही लगा होगा।
बाद में मायके वालों के कहने पर उन्होंने ससुराल का घर भी छोड़ दिया कि वहाँ तुम्हें सबका काम करना पड़ता है (वह खुद ही कहती इतना बड़ा घर था इतने नौकर क्या काम करना पड़ता था वहाँ मुझे ? कुछ नहीं उलटे अब सब करना पड़ता हैं) । मायके वाले चाहते थे घर का एक हिस्सा मुझे मिलें। घर के हिस्से ना हो इसके लिए उनके ससुर ने उनको एक फ्लैट ले कर दिया कि भाई तुमको अकेले रहना है तो तुम अकेले ही रहो । पर मायकें वालों का कहना था कि इतने बड़े घर के एक हिस्से की कीमत बस एक फ्लैट ? उन लोगों ने आभा को ससुराल वालों को कानून की धमकी देने की सलाह दी। तब उनके ससुर ने एक फ्लैट और ले कर दिया कि ठीक है यह फ्लैट भी तुम रखो और इसको किराए पर चढ़ा दो जो भी पैसे आएंगे उससे तुम्हारी गुजर बसर हो जाएगी।
वह कहती, उनका मन तो था मायके में जाकर रहने का। पर भाई बहन के समझाने पर कि अगर उन्होंने यह शहर छोड़ दिया तो उनका हक मारा जाएगा । वह हक़ जिसे देने को उनके ससुराल वाले तैयार नहीं थे और छोड़ने के लिए मायके वाले। उनका कहना था अभी कुछ दिनों पहले ससुराल वालों ने होटल के बदले कुछ पैसे देने की पेशकश की थी । पर उनके भाई बहन का कहना था कि नहीं होटल पर उनका अधिकार है तो उनको होटल ही मिलना चाहिए तो उन्होंने पैसे लेने की पेशकश ठुकरा दी थी। मैं उनकी बातें सुनता और बस मन में सोचता कि क्या उनके मन में अपने ससुराल वालों के प्रति छोभ है या मायके वालों के प्रति । क्या पैसा इतना जरूरी होता है कि मायके वालों ने उनकी जिंदगी सवाँरने की जगह तबाह कर दी या वे आभा की जिन्दगी, भविष्य सुरक्षित करना चाहते थे?
खैर यह मेरी सोच थी। मैंने कभी उनसे इस बारे में बात नहीं की। मैं सिर्फ सुनता था। शायद उनको भी बहुत सालों बाद कोई ऐसा मिला था जो उनकी बातें सुनता था।
क्रमश:
मौलिक एंव स्वरचित
✍️ अरुणिमा दिनेश ठाकुर ©️