एक दिन शाम को जब मैं ऑफिस से घर आया तो वह अपने घर के बाहर मिठाई का डिब्बा लेकर वहाँ बैठी महिलाओं को और बच्चों को मिठाई बाँट रहीं थीं। मैंने भी जाकर हाथ फैला दिये। मुझे भी खिलाइए, कौन सी खुशखबरी है कि आज मिठाई बाँटी जा रही है। उनकी आँखों में एक अलग ही चमक थी । उन्होंने घर के आगे खड़ी हुई एक्टिवा की ओर इशारा करके बोला, देखो मैंने गाड़ी ली ।
"पर आपको चलानी आती है" ? मैंने पुछा
हमेशा की तरह थोड़ा वर्तमान में थोड़ा यादों में डूबते हुए उन्होंने कहा, "हाँ पहले आती थी । शादी से पहले सहेलियों की और शादी के बाद पति की गाड़ी चलाती थी"।
"तो इतने सालों से कभी गाड़ी खरीदने का ख्याल क्यों नहीं आया" ?
उन्होंने कंधे उचकाते हुए जवाब दिया, "भूल गई थी"।
मैं उन्हें देख मेरे मन में सोच रहा था, भूल तो तुम जीना भी गई हो । काश तुम्हें वह भी याद आ जाए। वर्तमान में मैंने बोला, "चलो फिर मुझे घुमा कर लाओ" ।
वह हँसी और बोली, "नहीं पहले शनिवार को तुम मुझे लेकर दरिया पर चलना । वहाँ पर जाकर थोड़ी प्रैक्टिस करूँगी कि याद भी है कि चलाना भूल गई" ।
मैंने कहा, "उसके लिए शनिवार का इंतजार क्यों करना ? अभी कर लेते हैं । तुम चलाओ, मैं पीछे बैठा हूँ"।
उनकी आँखों में बच्चों सी चमक आ गई । क्या सच ! अगर मैंने कहीं एक्सीडेंट कर दिया तो?
मैंने कहा, "कोई बात नहीं । मैं हूँ ना, मैं संभाल लूंगा"।
वह बोलीं, "नहीं नहीं रहने दो ! तुम ऑफिस से थक कर आए हो"।
"अरे चलो ना तुम भी क्या फॉर्मेलिटी करती हो" और मैं उनके पीछे बैठकर उनके साथ दरिया पर निकल गया I
सप्ताह के बीच का दिन होने के कारण दरिया पर बिल्कुल भी भीड़ नहीं थी । सूर्य लगभग अस्त हो चुका था, हल्का उजाला था। मैंने कहा, "जाओ जाकर प्रैक्टिस कर लो" I
उन्होंने मेरी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा ।
मैंने कहा, "अभी तो मैं पीछे बैठकर ही आया हूँ ना । मुझे मालूम है तुम चला लोगी। जाओ कोशिश तो करो, नहीं गिरोगी।
उन्होंने हँसते हुए कहा, "ना बाबा ! तुम पीछे बैठो । गिरने लगी तो कम से कम पैर तो लगा लोगे नहीं तो बुढ़ापे में हड्डी जुड़ती भी नहीं है" ।
दो बार उन्होंने मुझे बिठाकर चक्कर मारा। उसके बाद उनको आत्मविश्वास आ गया। फिर कुछ चक्कर खुद से अकेले लगाएं । कितनी खुश नजर आ रही थी I
मैंने कहा, "आज कुछ ज्यादा ही खुश लग रही हो" ।
वह बोली, "जीवन में पहली बार खुद से कोई फैसला लिया है"।
मैंने कहा,"यह तो बहुत खुशी की बात है। अब आगे भी तुम्हारे जीवन के फैसले तुम खुद ही लेना"।
वह बोली, "हम उस जमाने के हैं, जब लड़कियों को फैसले लेना नहीं सिखाया जाता था । बाहर जाने के लिए भी अपने से दस साल छोटे भाई की उंगली पकड़ कर जाना पड़ता था। हम मानसिक रूप से पूरी तरह से परिवार वालों पर निर्भर रहते थे"।
पर अब तुम छोटी बच्ची नहीं हो । अब तो अपने फैसले खुद ले सकती हो ना । बुरा मत मानना पर बहुत बार पूछना चाहा, तुमने शादी क्यों नहीं की ? अगर तुम अपने पति को इतना चाहती थी तो कभी उनकी बातें क्यों नहीं करती हो ?
एक्टिवा वहीं पर खड़ी करके हम दोनों किनारों पर बनी सीढ़ियों पर बैठ गए । मैंने दोबारा से प्रश्न नहीं पूछा । मैंने उनको मौका दिया, सोचने का, बोलने का ।
थोड़ी देर बाद उनकी आवाज कहीं गहरे कुएं से आती सुनाई पड़ रही थी। तुम अभी बहुत छोटे हो, जब मेरी शादी हुई तब मैं भी बहुत छोटी थी सिर्फ सत्रह साल की नासमझ उमर । ढाई साल की वैवाहिक जिंदगी वह भी संयुक्त परिवार में, मेरे पास ऐसी कोई याद ही नहीं है। अब तो इतने साल हो गए हैं कि शिरीष का चेहरा भी याद नहीं आता है"।
"फिर शादी क्यों नहीं की ? इतनी लंबी जिंदगी अकेले काटना कितना मुश्किल होता है", मैंने कहा।
कहाँ रे ! कहाँ की लंबी जिंदगी ! कट गई, अब बची ही कितनी है ।
तुम कब तक अपने आप को धोखा देती रहोगी ? कब तक अपने आप से झूठ बोलती रहोगी ? कभी तो अपने मन की सुनो ।
हाँ तू बड़ा आया है मेरे मन की सुनाने वाला । चल तुझसे ही शादी कर लेती हूँ।
मैंने हंसते हुए बोला, हाँ तो हर्ज क्या है !
मेरी पीठ पर मारते हुए वह बोली, "हॉं! और तू पहुँच जाना अपनी माँ के सामने ,उनकी उम्र से भी बड़ी बहू लेकर के"।
मैंने कहा, "हॉं यह अच्छा रहेगा । फिर सास बहू की लड़ाई नहीं होगी। माँ को बहू की इज्जत करनी पड़ेगी" ।
"चल चल तू और तेरी बातें" उन्होंने उठते हुए बोला।
मैंने उनका हाथ पकड़ कर बोला, "पर सच में, अब इस बात को मजाक में मत उड़ाना। अगर तुम बोलो तो मैं अपने आसपास अखबार और इंटरनेट पर ढूँढ कर देखता हूँ, कोई ना कोई तो मिलेगा" ।
एक्टिवा घुमाते हुए वह बोली, "नहीं रहने दो। कुछ खुशियाँ मेरे नसीब में ही नहीं हैं"।
"ऐसे कैसे तुमने सोच लिया ? नसीब बदल भी सकते हैं"। मैने एक्टिवा पर उनके पीछे बैठते हुए बोला।
एक गहरी साँस भरकर एक्टिवा स्टार्ट करते हुए उन्होंने कहा, "हाँ सोचा था, कोशिश भी की थी। चलो अभी घर चलते हैं यह कहानी कभी बाद में सुनाऊँगी"।
मैं एक्टिवा पर उनके के पीछे बैठा सोच रहा था इस छोटे से दिल ने कितने जख्म खायें है।
क्रमशः
मौलिक एंव स्वरचित
✍️ अरुणिमा दिनेश ठाकुर ©️