(यह कहानी प्रतियोगिता के उद्देश्य लिखी गई है । किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से इसकी समानता संयोग मात्र हैं। वैसे लिखने को तो मैंने लिख दिया है पर कहानी पढ़ते वक्त आपको अपने आस पास बहुत सारी आभा दिखाई देंगी। अगर उनमें से एक भी आभा ने मेरी कहानी को समझ/ सबक लिया तो मेरा कहानी लिखना सार्थक हो जाएगा)
आज सोसाइटी में घुसते ही मेरा स्वागत मेरी चिर परिचित खुशबू ने नहीं किया था। बाएँ हाथ पर मुड़कर देखा तो दरवाजा बंद था, शायद कहीं गई होंगी पर उनकी एक्टिवा तो बाहर ही खड़ी थी । चमचमाती ब्रांड न्यू नहीं, पास जाकर देखा तो थोड़ी धूल जमी थी । वैसे मैं दिवाली की छुट्टी मना कर पंद्रह दिन बाद आ रहा हूँ। शायद वह भी कहीं गई होंगी पर कहाँ ? मुझे याद आया अरे मैं तो उन्हें अस्पताल में एडमिट करके गया था तो क्या वो अब तक अस्पताल में ही हैं ? शहरों की सोसाइटियाँ भी अजीब होती है ना । ना कोई किसी को जानता है ना जानना पसंद करता है ।आसपास इतने सारे लोग सब अपने-अपने काम में व्यस्त। किसी ने भी देखकर मुस्कान भी नहीं दी, ना ही हालचाल पूछा। अपना गाँव, अपना शहर याद आ गया कि स्टेशन से घर तक पहुँचते-पहुँचते, पैर छूते, दुआ सलाम करते पौना घंटा निकल जाता है। ।
अरे रुकिए, मैंने अपने बारे में ना कुछ बताया ना ही उनके बारे में | वो आभा और मैं बिहार के छोटे से गाँव सरीखे शहर का पढ़ा लिखा, मेरी यहाँ महाराष्ट्र में नौकरी लगी है । जब पहली बार आया था नौकरी ज्वाइन करने के लिए तभी सहकर्मियों से बात की थी । छोटा शहर था इसलिए दो-तीन दिन तो होटल में निकल गए । पर बाद में इसी सोसाइटी में सेकंड फ्लोर पर एक घर मिल गया था । चलो फिलहाल के लिए ठीक था। पर बाद में बदलना पड़ेगा क्योंकि यह बैंक से बहुत दूर था । सुबह समय से थोड़ा पहले घर से निकलता हूँ कि रास्ते में कुछ खाकर, नाश्ता करके पैदल ही बैंक तक जा सकूँ।
रोज सुबह सोसाइटी से बाहर निकलने से पहले बेला के फूलों की बहुत ही मनभावन खुशबू से मेरा मन प्रफुल्लित हो जाता। यही हाल हर शाम को लौट कर आने पर भी होता। सोसाइटी छोटी सी थी । मेन गेट से अंदर घुसते ही दोनों तरफ बेंच थी। कोई पार्क या स्टिल्ट पार्किंग या बच्चों के खेलने की जगह नहीं थी । वही बेंच पर कुछ बड़ी उम्र की महिलाएँ बैठी रहती और छोटे बच्चे खेलते रहते। एक दो बार बचपन की आदत के अनुसार मुस्कुराने अभिवादन करने की कोशिश की पर कोई प्रतिउत्तर ना पाकर छोटे शहर की यह आदत अपने आप छूट गयी। अंदर घुसते ही मैं उस खुशबू का स्रोत ढूंढने की कोशिश करता पर मुझे आसपास कहीं किसी भी बालकनी में, किसी भी घर के बाहर गमलों में बेला का पौधा लगा दिखा नहीं । अक्सर ना चाहते हुए भी नजरें ढूंढने लग जाती, यह बेला की इतनी भीनी भीनी खुशबू आ कहाँ से रही है? ऐसे ही एक दिन अंदर घुसते ही जब मुझे बेला की खुशबू आई मैंने खूब जोर से साँस ली। यही खुशबू तो मुझे वापस मेरे घर के आँगन में पहुंचा देती है। जहाँ मेरी माँ ने बहुत प्यार से बेला की खूब बड़ी बेल लगा रखी है ।
आँख खोलकर रोज की आदत के अनुसार इधर उधर देखा कि खुशबू कहाँ से आ रही है ? बाएँ हाथ के फ्लैट में एक अधेड़ उम्र की महिला खड़ी थी । वह कुछ बोल रही थी । क्या मुझसे ? पता नहीं ? मैं तो उन्हें जानता भी नहीं । वह भी मुझे नहीं जानती है । मैंने अपरिचित अनजान निगाहों से उनकी ओर देखा और चारों तरफ नजर दौड़ाई कि वह किस से बात कर रही है । किसी को भी ना पाकर मैंने फिर उनकी ओर देखा तो उन्होंने हाथ के इशारे से मुझे बुलाया। मैं उनकी ओर गया उन्होंने मुझसे फिर कुछ कहा शायद मराठी भाषा में। मैं कुछ समझ नहीं पाया । मैंने बोला, "मुझे आपकी भाषा नहीं आती है"। तब उन्होंने पास में लगे तुलसी के पौधे में दिए और अगरबत्ती की ओर इशारा करते हुए कहा, "तुम रोज देखते हो ना की मोगरा की महक कहाँ से आ रही है, वह यहाँ से आती है । क्या तुम्हें मोगरा से एलर्जी है" ?
मैंने कहा, "नहीं नहीं मुझे तो बेला बहुत पसंद है । यह खुशबू ही तो मुझे इस अनजानी जगह, अनजाने लोगों के बीच में अपनेपन का एहसास देती है" ।
फिर मैं उसी जगह खड़े होकर उनसे बातें करने लगा। मुझे मराठी नहीं आती थी पर उन्हें, आभा को हिंदी अच्छे से आती थी । उनसे बातें करके अच्छा लगा । परदेस में कोई तो मिला, दोस्त ना सही, हमदर्द ना सही, पर हाल-चाल भी पूछा तो अच्छा लगा। मैं उनके कद काठी रूप रंग के बारे में कुछ नहीं कहूँगा क्योंकि उनकी ओर मुझे उनकी बातों ने आकर्षित किया । अकेलापन ही अकेलेपन का साथी होता है । शायद वह भी बहुत अकेली थी। चलिए उनके बारे में बता ही देता हूँ , वह थोड़े भरे शरीर की, शक्ल सूरत से अच्छी, मध्यम वर्ग की महिला थी। कभी शायद बहुत खूबसूरत रहीं होंगी पर वक्त के थपेड़ों के निशान उनके चेहरे पर दिखते थे। उनकी मुस्कुराहट में भी एक लाचारगी थी। उन की मुस्कान में ना ममत्व की भावना थी ना हीं प्रेम की । उनको देख कर पहली बार मे यहीं लगता था कि वह बस जीने के लिए जी रही है । फिर भी मुझे उनका साथ अच्छा लगा ।
अब तो अक्सर आते वक्त शाम को थोड़ी देर खड़े होकर हम बातें करते। बातें भी क्या ? दैनिक दिनचर्या के बारे में, कि खाना कहाँ खाता हूँ ? नाश्ता कहाँ करता हूँ ? माँ साथ नहीं है तो बर्तन धोने पड़ते हैं घर के सब काम भी। पहले कभी यह सब किया नहीं, यही सब । अभी तक कभी भी उन्होंने मुझे अपने घर आने के लिए या मैंने उन्हेंअपने घर पर आने का आमंत्रण नहीं दिया था ।
एक दिन वह बोली, "कामवाली भी नहीं रखी है। घर की साफ सफाई करते हो या नहीं" ?
मैंने बोला, "हॉं करता हूँ ना । शनिवार इतवार को जब समय मिलता है तो कर लेता हूँ। खाना मैं भले ही नहीं बना पाता पर गंदगी में रहना अच्छा नहीं लगता तो साफ सफाई तो करनी ही पड़ती है"।
वह बोली, "अच्छा फिर ऐसा करना, इस रविवार जब साफ सफाई कर लेना तो सुबह का नाश्ता या दोपहर का खाना जो भी समझो मेरे साथ खा लेना" I
मैंने कहा, "आप क्यों तकलीफ करती हैं" ?
उन्होंने बोला, "तकलीफ की कोई बात नहीं। मैं अपने लिए बनाऊँगी ही, दो रोटी तुम्हारे लिए भी सेक दूँगी" ।
मैंने मजाक में कहा, "आपको दो रोटी से ज्यादा सेंकनी पड़ेगी"।
वह हँसी. . . शायद पहली बार मैंने उनको खिलखिला कर हँसते हुए देखा। शायद पत्थर हो चुकी संवेदनाएं जीवित होने लगी थी।
क्रमशः
मौलिक एंव स्वरचित
✍️ अरुणिमा दिनेश ठाकुर ©️