मैं अपनी बैंक की इस नौकरी से संतुष्ट नहीं था। मैं अक्सर नौकरी के लिए आवेदन करता रहता था । पर मुझे डर था कि अगर मुझे कोई अच्छी नौकरी मिल गई और मुझे यहाँ से जाना पड़ा तो शायद उन्हें दुख होगा। शायद उन्हें दुख: ना भी हो पर मैं उनको ऐसे अकेले छोड़कर नहीं जाना चाहता था । मैं चाहता था कि काश कोई तो मिल जाए जो इनके जीवन को खुशियों से भर दे । पर उस दिन जब उन्होंने ऐसा कहा तो मेरे मन में जिज्ञासा उठी कि आखिर ऐसा क्या हुआ होगा । ज्यादा पूछताछ करने का मेरा स्वभाव नहीं है। फिर भी मुझे लगा, नहीं, एक बार तो इस बारे में बात करनी ही पड़ेगी और यह मौका मुझे बहुत जल्द ही मिल गया।
थोड़ा कुरेदने पर मानो लगा वह खुद से ही इस घाँव को, इस टीस को खोल कर बहा देना चाहती थी। उनके ही शब्दों में, "जब मैंने अकेले रहना शुरू किया तो मेरा समय काटे ही नहीं कटता था । ऊपर से पैसे के लिए भी मैं किसी के सामने हाथ फैलाना नहीं चाहती थी । वैसे तो ससुर जी कह रहे थे कि होटल में आकर काम संभाल लो । पर होटल का काम सभांलना मेरे बस का नहीं था । मुझे कंप्यूटर आता था । थोड़ी भागदौड़ से मुझे एक ऑफिस में नौकरी मिल गई ।
वह भी वही काम करता था । वह मेरे पति का दोस्त था । सच कहूँ तो मैंने उसे कभी नहीं देखा था । पर हो सकता है ना, पूरा शहर ही लड़कों का दोस्त होता है। उसका स्वभाव बहुत ही अच्छा और मिलनसार था। मेरी नई नई नौकरी थी । मुझे बार-बार किसी ना किसी से कुछ ना कुछ पूछना ही पड़ता था। तो मैं उसकी ही मदद लेती थी । साथ काम करते करते पता नहीं कैसे हम दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति कुछ भावनाएं जागृत हो गई।
पहल उसने ही की थी पर मेरी भी अपनी सीमाएँ थी। मैं चाहकर भी उसके प्यार को स्वीकार नहीं कर पा रहीं थी। धीरे धीरे उसके प्यार और व्यवहार ने मुझे मेरी पलकों पर भविष्य के सुंदर सपने सजाने को मजबूर कर दिया। हमने अपने परिवार वालों को अपने बारे में बताने का निर्णय लिया। उसका मानना था कि उसके परिवार वाले उसकी खुशी के लिए मान जायेंगें। परेशानी तो मेरी तरफ से होगी। मुझे दो दो परिवारों को राजी करना पड़ेगा। खैर मैंने सब सोच विचार कर रखा था। शायद उससे शादी करने के बाद मुझे यह सब फ्लैट वगैरह छोड़ना पड़ेगा तो कोई गम नहीं। पर मैं अपने सास-ससुर व माता-पिता से अनुमति ले पाती उसके पहले ही एक दिन उसकी माँ आ करके मुझे बहुत बुरा बुरा बोल कर गई । बेवा होकर जवान लड़को को फसाती हो। अरे फसाना ही था तो किसी विधुर को फसाती, तुझे मेरा लड़का ही मिला। और ना जाने क्या क्या। मुझे बहुत शर्म आयीं अपने ऊपर । क्यों मैं भूल गई थी कि मैं एक विधवा हूँ ? क्यों मैं भूल गई थी कि मैं उस समाज में रहती हूँ जहाँ पत्नी के मरने के सवा महीने बाद ही पुरुष की, एक विधुर की शादी एक कुंवारी कन्या से कोई सवाल खड़े नहीं करती हैं। पर पति के मरने के बाद एक विधवा को कोई भी बहू रूप में स्वीकार करना पंसद नहीं करता। शायद समाज के इसी रूप से मेरे माता पिता भली भाँति परिचिति थे इसीलिए मेरे भविष्य की सुरक्षा के लिए वह ससुराल की सम्पति में मेरे हक की बात करते थे।
इस घटना के बाद दो दिन तक मैं ऑफिस नहीं गई। मै लोगों का, समाज का सामना करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रही थी । मन के एक कोने में एक आशा कह रही थी कि शायद वह मिलने आएगा । शायद वह इन सब रूढ़ियों, बाधाओं को तोड़कर अपने परिवार को शादी के लिए मना लेगा । वह आया तो पर परिवार की स्वीकृति के बगैर | और सच कहूँ मैं फिर किसी बेटे को उसकी माँ से अलग करने का निमित्त नहीं बनना चाहती थी । वह हंसते हुए बोली, "फिर . . ? क्यों पूछ रहे हो! शिरीष के मरने के बाद भी तो सब ने यही कहा था, उसकी माँ ने भी, करमजली खा गई मेरे बेटे को। मैं चुप था, आज बरसों की पीड़ा बह रही थी । मैंने उसे बहने दिया। क्या हर आभा अपने अंदर इतना दर्द छुपाए रहती है . . ?
क्रमश:
मौलिक एंव स्वरचित
✍️ अरुणिमा दिनेश ठाकुर ©️